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लब्धिसार
[ गाथा २८ २२ ]
उदधे चउदसघादी णिहापयलाणमेक्कदरगं तु ।
मोहे दस सिय णांमे वंचिठाणं सैसगे संजोगेक्कं ॥२८॥ - अर्थ-तीनं धातियांकर्मोकी १४ प्रकृतियां, निद्रा या प्रचलामें से कोई एक, मोहनीयकर्मकी स्यात् (कथंचित्) १० प्रकृति, नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमे उदययोग्य प्रकृतियां और शेष वेदनीय, गोत्र व आयुकर्मकी एक-एक प्रकृति भी मिला लेना चाहिए । ये सर्वप्रकृतियां उदययोग्य है ।।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चारोगतिसम्बन्धी मिथ्यादृष्टिजीवके सर्व मूल प्रकृतियोंका उदय होता है तथा उत्तरप्रकृतियोमे से पाचज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, पांचअंतराय ये (५+४+५) १४ प्रकृतियां, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कॉमरणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परंघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण इन प्रकृतियोका नियमसे उदय होता है, क्योकि यहापर इन प्रकृतियोका ध्र व उदय होता है । साता व असातावेदनीयमे से किसी एकको उदय होता है, क्योकि ये दोनो प्रकृतिया परावर्तमान उदयस्वरूप है' । मोहनीयकर्मकी १०-६ अथवा ८ प्रकृतिका उदय होता है । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभमे से कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणकोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक, सज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक (क्रोधादिमें से जिसकषायको उदय हो, अनन्तानुबन्धीआदि चारोमे उसी कषायका उदय होगा) स्त्रीवेद, पूरुषवेद, नपु सकवेद इन तीनो वेदोमे से कोई एक, हास्य-रति और अरति-शोके इन दोनो युगलोमे से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा , मोहनीयकर्मकी ये १० प्रकृतिया उदयस्वरूप होती है । इन १० प्रकृतियोमे से भय या जुगुप्सा (किसी एक) को कम कर देनेसे मोहनीयकर्मकी ६ प्रकृतिया उदयस्वरूप रह जाती है । इन्ही १० प्रकृतियोमे से भय और जुगुप्सा इन दोनो प्रकृतियोको कम कर देनेपर मोहनीर्यकर्मकी आठ प्रकृतिया उदयस्वरूप रह जाती हैं । चारो आयुअोमे से किसी एक आयुकर्मका उदय होता है, १ ज. ध पु. १२ पृ २१५-१६ । यस्माच्च-वेदरणीयस्स सादासादोण रगत्थि उदएंगण झीरणदा।
(ज घ. पु १२ पृ. २२७ ) २ प पु ६ पृ २११ । गो क. ४७५ से ४७६ एव प्राकृतपचसग्रह सप्तति अ. प. ३२५ गा. ३६
तथा ध पु १५ पृ ८२-८३, ज.ध. पु. १२ पृ २३० ।