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लब्धिसार
[ गाथा २६-३० यदि मनुष्य है,तो उपर्युक्त ३० प्रकृतियोमे तिर्यंचगतिके स्थानपर मनुष्यगतियुक्त ३० प्रकृतियोका उदय होता है । मनुप्योमें उद्योतका उदय सम्भव नही है अतः नामकर्मकी ३१ प्रकृतियोका उदय नह होता है । यदि देव है तो देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मरणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघ, उपघात, परघात. उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर. स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण ; नामकर्मकी इन २६ प्रकृतियोंका उदय होता है'।
उपर्युक्त गाथामे तथा ध. पु ६ पृ. २१० पर निद्रा और प्रचला किसी एकके उदय के साथ दर्शनावरणीयकर्मकी पांचप्रकृतियोका उदय बतलाया है, किन्तु ज. ध पु. १२ १ २२७ पर पांचो निद्राकी उदयव्युच्छित्ति कही गई है, क्योकि साकारोपयोग
और जागृत अवस्थाविशिष्ट दर्शनमोह-उपशामकके पांच निद्रादिके उदयरूप परिणामका विरोध है । इसप्रकार निद्रा व प्रचलाके उदयमे दोमत है । एकमत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार करता है, दूसरा मत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार नहीं करता ।
प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके निद्रादि पांचदर्शनावरण, वारजातिनामकर्म, चारो आनुपूर्वी नामकर्म, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, ये प्रकृतिया उदय से व्युच्छिन्न होती है ।
अथ प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टिके उपययोग्य प्रकृतिसम्बन्धी स्थिति व अनुभागका तथा प्रदेशोंकी उदय-उदीरणाका कथन करते हैं
उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि । विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥२६॥ मजहरणमणुक्करस्प्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु ।
उदयिल्लाणं पय डिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥३०॥ ! 7..२८ २१६-२२० । गो .गा. ५६५-५६७ व ३०३-३०४। अत्र भाषापर्याप्तिस्थाने
स्वागतमातिरयन वनंते । २
२१ २२६-३० । ३५ १२१ २२६-२७ ।