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गाथा २७ ]
लब्धिसार कार्मरणशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचअन्तराय ( दान-लाभभोग-उपभोग और वीर्य ) इन ६१ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध होता है ।
उक्त तीन महादण्डकोंमें कथित अपुनरुक्त प्रकृतियोंको कहते हैं-- . पढमे सव्वे विदिये पण तिदिये चउ कमा भपुणरुत्ता । इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसु वि अपुणरुत्ता ॥२७॥ .
अर्थ-क्रमश प्रथमदण्डकमे सर्वप्रकृतिया, द्वितीयदण्डकमे पांचप्रकृतिया और तृतीयदण्डकमें चारप्रकृतियां, इसप्रकार तीनो दण्डकोमें सर्व ८० प्रकृतिया अपुनरुक्त हैं ।
विशेषार्थ-प्रथमदण्डक ( गाथा २० ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिमनुष्य व तिर्यचोके बन्धयोग्य ७१ प्रकृतियोका नामोल्लेख है; ये ७१ प्रकृतिया अपुनरुक्त है, क्योकि ये प्रकृतिया प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं। द्वितीयदण्डक (गाथा२२) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिदेव व प्रथमादि छह पृथ्वियों के नारकसम्बन्धी बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियोका कथन है; इन ७२ प्रकृतियोंमें ६७ प्रकृतियां तो प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकअङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसहनन ये पाच प्रकृतिया प्रथमदण्डकसम्बन्धी नही है, अतः अपुनरुक्त है । तृतीयदण्डक (गाथा २३) में ६६ प्रकृतिया तो द्वितीयदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत ये चार प्रकृतियां प्रथम व द्वितीयदण्डकमे नही है अत अपुनरुक्त है । तृतीयदण्डकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवीपृथ्वीके मिथ्यादृष्टि नारकीसम्बन्धी बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन है और सातवी पृथ्वीका उक्तजोव निरन्तर तिर्यचगतिआदि प्रकृतियोका बन्ध करता है। इसप्रकार प्रथमदण्डककी सर्व ७१, द्वितीयदण्डककी ५ प्रकृति तथा तृतीयदण्डककी ४ ये सर्वमिलकर (७१+५+४) ८० प्रकृतिया अपुनरुक्त कही गई है।
इसप्रकार प्रथमलम्यक्त्वके अभिमुख विशुद्धमिथ्यादृष्टिके प्रकृति-स्थितिअनुभाग और प्रदेशोंके बन्ध-प्रबन्धरूपभेद को कहकर उसीके उदयका कथन करते हैं
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ज.ध. पु. १२ पृ. २१३ ।