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गाथा २५६ ]
क्षपणासार
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यद्यपि धर्मध्यान अवस्था में कर्मबन्ध भी होता है, क्योंकि वह सकषायी जीवोंके होता है; तथापि वह संवर निर्जरा व कर्मरूप शत्रुकी सेनाके राजा मोहनीय कर्मका विनाश करनेवाला है ।
"किं फलमेदं धम्मज्झाणं ? अक्खवएसु विउलामर सुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जराफलं । खवएसु पुण असखेज्जगुरणसेडीए कम्मपदेसणिज्जराणफल सुहकम्माणमुक्कस्साणुभाग विहाणफलं च' । मोहरणीयविणासो पुण धम्मज्भाणफल, सुहुमसां पराइयचरमसमए तस्स विणासुवलभादो' । श्रर्थात् —
शङ्का - धर्म ध्यान का क्या फल है ?
समाधान- अक्षपक जीवोंको देवपर्याय सबधी विपुलसुख मिलना और कर्मोकी गुणश्रेणिनिर्जरा होना धर्मध्यानका फल है । क्षपक जीवोंके तो प्रसंख्यातगुणश्रेणिरूपसे कर्मनिर्जरा होना और शुभकर्मोंका उत्कृष्टअनुभाग होना धर्मध्यानका फल है । मोहनीयकर्मका विनाश करना भी धर्मध्यानका फल है ।
धर्मध्यानपूर्वक ही शुक्लध्यान होता है, क्योकि धर्मध्यानके द्वारा मोहनीय कर्मका उपशम या क्षय हो जानेपर ही वीतरागता होती है । अब शुक्लध्यावका कथन करते हैं—
शङ्का - शुक्लध्यान के शुक्लपना किस कारण से प्राप्त है ?
समाधान — कषायमलका अभाव होनेसे शुक्लध्यानके शुक्लपना प्राप्त है । वह शुक्लध्यान चारप्रकारका है - पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रिया-प्रतिपाति । इनमें से प्रथमशुक्लध्यानका लक्षण इसप्रकार है -- पृथक्त्वका अर्थ भेद है, वितर्क द्वादशांगश्रुतको कहते हैं और वीचारका अर्थ मन-वचन-काययोग तथा अर्थ (पदार्थ) और व्यंजनकी संक्रान्ति है । पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क ( श्रुत) का वीचार ( सक्रांति ) जिसध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितर्कवीचारनामक ध्यान है ।
१.
धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ ।
२. धवल पु० १३ पृष्ठ ८१ ।