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शन्द
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क्रोधकाण्डक
क्षायिक चारित्र
गुणश्रेणिनिर्जरा
परिभाषा सागर कहलाता है। अर्थात् करोड ४ करोड x सागर = कोडाकोडीसागर ।
[ कर्मों की स्थिति श्रद्धापल्य, श्रद्धासागर से वर्णित है ] __ क्रोध की अपूर्वस्पर्धकसख्या को मान कपाय की अपूर्व स्पर्धक सख्या मे से घटाने
पर जो शेष रहे उसका क्रोध की अपूर्वस्पर्धक सख्या मे भाग देने पर "क्रोध के काण्डक' का प्रमाण प्राप्त होता है। तथा उस काण्डकप्रमाण मे क्रमश. एकएक अधिक करने से मान, माया एव लोभ, इन तीन काण्डको का प्रमाण प्राप्त होता है। यानी क्रोध के काण्डक ( क्रोध काण्डक ) से एक अधिक का नाम मान काण्डक है। इससे एक अधिक का नाम माया काण्डक है । तथा इससे भी एक अधिक का नाम लोमकाण्डक है । सकल चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने वाले चारित्र को क्षायिक चारित्र कहते हैं। त वृत्ति २-४, ल सा ६०६, धवल पु १४/१६ [ चारित्त मोह
क्खएण समुप्पण्ण खइय चारित्त ], त वा २/४/७; स सि २/४ आदि । ३९ विशुद्धिवश गुणश्रेणी के द्वारा कर्मप्रदेशो की निर्जरा होना गुणश्रेणि निर्जरा है।
"गुणश्रेणी" की परिभाषाके लिए देखो-उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी प्रायाम की परिभाषा मे । इतना विशेष जानना कि गुणश्रेणि निर्जरा कर्म की होती है, नोकर्म की नही । ध० ९/३५२ "समय पडि असखेज्जगुणाए सेढीए जो पदेससकमो सो गुणसकमो त्ति भण्णदे।" अर्थात् प्रत्येक समय असख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा जो प्रदेश सक्रम ( अन्य प्रकृति रूप परिणमन ) होता है वह गुणसक्रम कहलाता है । जयघवल पु० ९ पृ० १७२ गो० क० जी० प्र० ४१३ आदि कहा भी है-अप्रमत्त गुणस्थान से आगे के गुणस्थानो मे बन्ध से रहित प्रकृतियो का गुणसक्रम और सर्व सक्रम होता है । धवल १६/४०९ प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कहा है कि प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रम से युक्त, अवन्ध अप्रशस्त प्रकृतियोका द्रव्य, बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियो मे सक्रान्त होता है, यह गुणसक्रम है । ल सा. ४००, गो० क० ४१६ अर्थात् विशुद्धि के वश प्रतिसमय असख्यातगुणित वृद्धि के क्रम से मबध्यमान अशुभ प्रकृतियो के द्रव्य को
जो शुभ प्रकृतियो मे दिया जाता है इसका नाम गुण सक्रम है । २३१ सूत्र-सूचित अर्थ के प्रकाशित करने का नाम चूलिका है। धवल १०/३९५ जिस
अर्थ-प्ररूपणा के किये जानेपर पूर्व मे वरिणत पदार्थ के विषय मे शिष्य को निश्चय
गुरगसक्रम
चूलिका