________________
१०] -लब्धिसार
[ गाथा-११-१५ विशेषार्थ-अन्त-कोडाकोडीसागरोपम - स्थितिवन्धसे पृथक्त्व :-१०० सौगरप्रमाग स्थितिवन्ध घटनेका क्रम इसप्रकार है-अन्त कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाणं स्थितिवधसे पत्यवे सत्यातवेभागसे हीन स्थितिको अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त-समानता लिये हुए ही बाधता है, फिर उसने पल्यके संख्यातवेभागहीन - स्थितिको अन्तर्मुहूर्ततक वाधता है । इसप्रकार पल्यवे मध्यातवेभागहीन क्रमसे एकपल्यहीन अन्तःकोडाकोडीसागरोपम स्थितिको अतमुहर्ततक वाचता है तथा इसी पल्यके - सख्यातवेभाग-हीन क्रमसे स्थिंतिवन्धापसरण करता हुआ दो पल्यसे हीन, तीनपल्यसे हीन इत्यादि स्थितिको अतमुहूर्ततक बांधता है। पुन इसीक्रमसे आगे-आगे स्थितिवन्धका ह्रास करता हुआ एक सागरसे हीन, दो सागरने हीन, तीन सागरसे हीन इत्यादि क्रमसे सात-पाठसौ सागरोपमोसे हीन अत - कोटाकोटीप्रमाण स्थितिको जिससमय बाधने लगता है, उससमय प्रकृतिवध-व्युच्छित्तित्प एकबन्धापसरण होता है। उपर्युक्त क्रमसे ही स्थितिबन्धका ह्रास होता है और जब वह ह्रास सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमित हो जाता है तव प्रकृति वन्ध व्युच्छित्तिरून मग बन्धापनरंग होता है । यहीक्रम आगे भी जानना चाहिए'। . - आगे चौतिस प्रकृतिबंधापसरणों को पांच गाथाओके द्वारा कहते हैं- .
भाऊ पडि णियद्गे, सुहुमतिये सुहुमदोरिण पत्तेयं । वादरजुन दोगिण पदे, अपुराणजुद बितिचलरिणसण्णीसु ॥११॥ भट्ट अपुण्णपदेलु वि, पुण्णेण जुहेसु तेसुं तुरियपदे। एइंदिय आदाब, थावरणामं च मिलिदव्वं ॥१२॥ तिरिगदगुज्जोवो वि य, णीचे अपसत्थगमणदुभगतिए । हुंडासंपत्ते वि य, णउंसए वामखीलीए , ॥१३॥ खुज्जद्धं णाराए, इत्थीवेदे य सादिणाराए । .. णगोधवज्जणारा ए मणुओरालदुगबज्जे ॥१४॥ . . अधिरयसभ जस अरदी, सोयप्रसादे य होंति चउतीमा । ।
यंधोसरणट्रागा, भवाभवेत सामण्णा ॥१५॥ ,
मान्यतटीग के प्राधान्से लिखा है।