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गाथा ६-१० ] लब्धिसार
[६ कर्माशिकके सातवें नरकमें चरमसमयमें होता है । क्षपितकर्माशिकके दसवेगुणस्थानके अन्तिमसमयमे मोहनीयकर्मका और १२वे गुणस्थानके चरमसमयमे तीनघातिया कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्त्व है । विशेष जाननेके लिए ध पु १० देखना चाहिए । स्वामित्वसम्बन्धी उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध व उत्कृष्टस्थिति-अनुभाग व प्रदेशसत्त्व उत्कृष्टसक्लेशपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीवके होता है जिसके उत्कृष्टसक्लेशके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नही हो सकता तथा जघन्यस्थितिबन्ध व जघन्यस्थिति-अनुभाग-प्रदेशसत्त्व क्षपकणिमे होता है वहापर तो क्षायिकसम्यक्त्व होता है।
अब आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुखजीवके स्थितिबंधपरिणामोंको कहते हैं
सम्मत्तहिमुह मिच्छो विसोहिवडीहि वड्डमाणो हु।
अंतोकोडाकोडिं सत्तण्इं बंधणं कुणदी ॥६॥
अर्थ-विशुद्धिकी वृद्धिद्वारा वर्धमान तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव सातकर्मोका अन्त कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिबन्ध करता है ।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सभी मिथ्यादृष्टिजीव एककोडाकोडीसागरके भीतरकी स्थिति अर्थात् अन्त कोडाकोडीसागरोपमको बांधता है, इससे बाहर अर्थात् अधिक स्थितिको नही बाधता' । कहा भी है-स्थितिबन्ध भी इन्ही अर्थात बधनेवाली प्रकृतियोका अन्त कोडाकोडीसागरोपमप्रमाण ही होता है, क्योकि यह अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीव विशुद्धतरपरिणामोसे युक्त होता है ।
अथानन्तर प्रायोग्यलब्धिकालमें प्रकृतिबंधापसरणको कहते हैं
तत्तो उदय सदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय । बंधम्मि पयडि बंधुच्छेदपदा होंति चोत्तीसा॥१०॥
पर्थ-उससे अर्थात् अन्त कोडाकोड़ीसागर स्थितिसे पृथक्त्व सौ सागरहीन स्थितिको बाधकर पुनः पुनः पृथक्त्व १०० सागर घटाकर स्थितिवन्ध करनेपर प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्ति के ३४ स्थान होते है ।
१. ध. पु. ६ पृ. १३५।
२. ज.ध. पु. १२ पृ. २१३ ।