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गाथा १८
लब्धिसार
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नही बध नेवीली प्रकृतियोंकी स्पष्टीकरण इसप्रकार हैं-- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपु ंसकवेद, अरति, शक, चारोंप्रयु, नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति त्रीन्द्रियजाति, वितुरिन्द्रियजाति, वैकिविकेशरीर, प्राहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थानको छोड़कर शेष पाचसस्थान, वैक्रियिकशरीर अगोपाग, श्रीहारशरीर अगोपाग, वज्रर्षभनाराचसंहननको छोड़कर शेष पाच सहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तंविहायोगति, प्रातप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेय, अयश कीर्ति, नीचगोत्र, और तीर्थकर ' । इनमेसे अपनी-अपनी बंन्ध - अयोग्य प्रकृतियोको घटाकर शेष प्रकृतियोका बन्धाप्रसरण द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है ।
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- भवनत्रिक (भवनवासी, वानव्यतर, ज्योतिष ) देवो व सौधर्म - ऐशानस्वर्गके देवोमे तिर्यगायु, मनुष्यायु, एकेन्द्रिय, तप, स्थावर, तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दु.स्वर्, अनादेय, हुण्डसस्थान, असप्राप्तासृपाटिकासहनन, नपु सकवेद, वामनसस्थान, कोलितसंहनन, कुंब्जकसस्थान, अर्धनाराचसहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसस्थान, नाराचसहनन, न्यग्रोध संस्थानं, वज्रनाराचसंहनन, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीर्ति, भरति, शोक, असातावेदनीय इन ३१ प्रकृतियोकी बघ - व्युच्छित्तिं प्रथमोपशमस॒म्यक्त्व के अभिमुख जीवके होती है । प्रथमादि छहनरक और तृतीयस्वर्ग से बारहवेस्वर्गत कके जीवोमे उपर्युक्त ३१ प्रकृतियोमेसे बन्धके अयोग्य एकेन्द्रिय॒ज्ञाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोको कम करनेसें शेष २८ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति सम्यक्त्वके श्रभिमुखजीवके होती है । १३वे स्वर्गसे १६वे स्वर्गं तथा नौग्रं वैयकतकके देवोंमें उपर्युक्त २८ प्रकृतियो मे से बन्धके अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी और उद्यत इन चार प्रकृतियोको कम करनेसे शेष २४ प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके- अभिमुखजीवके होती है ।
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शंका- जिस प्रकार मनुष्य व तिर्यचोके औदारिकशरीर और औदारिकअगोपाग इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उसीप्रकार उसी विशुद्धिमे वर्तमान देव और नारकियोके औदारिकशरीर व अंगोपांगका बन्धव्युच्छेद क्यो नही होता ?
समाधान - सहकारीकारणरूप मनुष्यगति और तिर्यचगतिके उदयसे वर्जित केली (केवल ) विशुद्धि श्रीदारिकशरीर व औदारिकशरीरङ्गोपाङ्गका बन्धव्युच्छेद १ पु ६ पृ १४१-४२ । एवं जयववल पु. १२ पृ २२५