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गाथा १५ ] लब्धिसार
[ १३ प्रकृतिया बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचशरीरसंहनन इन दोनो प्रकृतियोका एकसाथ बंधव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्वं नीचे उतरकर स्त्रोवेदको बधुव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर स्वातिसंस्थान और नाराचशरीरसंहनन इन दोनो प्रकृतियोकी 3'बधव्युच्छित्ति युगपत् होती है, उससे सागरोपमंशतपृथक्त्व नीचे उतरकर न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और वज्रनाराचसंहनन ये दो प्रकृतियां युगपत् ३२बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर-औदारिकशरीरअंगोपांग और वज्रर्षभनाराचसंहनन इन पांच प्रकृतियोकी युगपत् 33बन्धव्युच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर अरति-शोक, अस्थिर-अशुभ, अयशःकीति-असातावेदनीय इन छहो प्रकृतियोका युगपत् "बन्धव्युच्छेद होता है'।
शंका-प्रकृतियोके बन्धव्युच्छेदका यह क्रम किस कारणसे है ?
समाधान--अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोका अवस्थान माना गया है उसी अपेक्षासे यह प्रकृतियोके बन्धव्युच्छेदका क्रम है । बन्धव्युच्छेदका यह क्रम विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टिजीवोमे साधारण अर्थात् समान है, किन्तु जयधवलाकारने कहा है कि "जो अभव्योके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अन्त कोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिबन्धकी अवस्था मे एक भी कर्मप्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति नही होती ।" इसप्रकार इससम्बन्धमे दो मत है । इसीप्रकार ३४ स्थितिबन्धापसरणोके सम्बन्धमे भी दो मत है-ध. पु ६ प्र १३६ से १३६ तक प्रत्येक बन्धापसरणमे सागरोपमशतपृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका क्रम बताया है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ. २२१ से २२४ तक मात्र सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका उल्लेख है।
अन्तिम ३४ वे बन्धापसरणमे असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति इन छह प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके हो जाती है । यद्यपि ये प्रकृतिया प्रमत्तसयतगुणस्थानतक बन्धके १. ज.ध. पु १२ पृ. २२१ से २२५ एव ध पु. ६ पृ १३४ से १३६ । २ पु ६ पृ १३६-१३६ । ३ ज. ध पु १२ पृ २२१ ।
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