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उत्कृष्ट कृष्टिः उपरितन कृष्टि उष्ट्रकूट श्रेणी
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काण्डक कृष्टि अन्तर १००-१०१
परिभाषा "उच्छिष्टावली" है। यानी स्थितिसत्त्व मे प्रावली मात्र के अवशिष्ट रहने पर वह उच्छिष्टावली कहलाती है । सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिम कृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है। चरम, द्विचरम आदि कृष्टियो को उपरितन कृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार ऊँट की पीठ पिछले भाग मे पहले ऊँची होती है पुनः मध्य मे नीची होती है, फिर आगे नीची-ऊँची होती है, उसी प्रकार यहा भी प्रदेशो का निषेक प्रादि मे बहुत होकर फिर थोडा रह जाता है । पुनः सन्धिविशेषो मे अधिक और हीन होता हुअा जाता है । इस कारण से यहा पर होने वाली प्रदेश श्रेणी की रचना को उष्ट्रकूट श्रेणी कहा है । क० पा० सु० पृ० ८०३, जय धवल २०५९-६४ अन्तर्मुहूर्त मात्र फालियो का समूह रूप "काण्डक" है । एक-एक कृष्टि सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियो के अन्तर की सज्ञा "कृष्टि अन्तर" है । क. पा० सु० ७६६ केवली भगवान् अघातिया कर्मों की हीनाधिक स्थिति के समीकरण के लिये जो समुद्घात ( अपने आत्म प्रदेशो को ऊपर, नीचे और तिर्यक् रूप से फैलाना) करते है. उसे केवलि-समुद्घात कहते है। इस समुद्घात की दण्ड, कपाट. प्रतर
और लोकपूरणरूप चार अवस्थाएं होती है। दण्ड समुद्घातमे प्रात्म प्रदेश दण्ड के आकार रूप फैलते है । कपाट समुद्घात मे कपाट ( किवाड ) के समान
आत्मप्रदेशोका विस्तार बाहुल्य की अपेक्षा तो अल्प परिमाणमय ही रहता है, पर विष्कम्भ और मायाम की अपेक्षा बहुत परिमाणमय होता है। तृतीय समुद्घातमे अघातिया कर्मों की स्थिति और अनुभाग का मन्थन किया जाता है, अत: तीसरा "मन्थसमुद्घात" कहलाता है । इसे ( तृतीय समुद्घातको ) प्रतर समुद्घात और रुजक समुद्घात भी कहते हैं । समस्त लोक मे आत्म प्रदेशो का फैलाव, चौथे समयमे हो जाने से, चौथे समयमे लोकपूरण समुद्घात कहलाता है। विशेष के लिए जयधवला का पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार तथा प्रस्तुत ग्रन्थ पृष्ठ १६६ से
२०३ देखना चाहिए। __ दस कोडाकोडी पल्य ( अद्धापल्य ) का एक सागर (प्रद्धासागर ) होता है।
तथा एकसागर को "करोड x करोड़" से गुणा करने पर जो आवे वह कोटाकोटी
केवलि-समुद्घात
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कोटाकोटीसागर