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१९ )
शब्द
पृष्ठ
छद्मस्थ
२३७
जघन्य कृष्टि
११९ १८६-१८९
दूरवर्ती
परिभाषा उत्पन्न हो, वह चूलिका है । धवल ११३१४० पूर्व निरूपित अनुयोग द्वारों मे एक, दो अथवा सभी अनुयोगद्वारो से सूचित अर्थों की विशेष प्ररूपणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम चूलिका है। घवल पु० ७ पृ० ५७५ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का नाम “छद्म" है। इस छद्म मे जो स्थित रहते हैं, उन्हे छद्मस्थ कहते है । धवल १०।२९६, धवल ११९०, धवल ११८८ सवसे स्तोक अनुभाग वाली प्रथम कृष्टि ही जघन्य कृष्टि कहलाती है। दूरवर्ती क्षेत्र मे स्थित "दूर" कहलाती है। क्ष. सार ६११ एव न्यायदीपिका पृ ४१ कहा भी है-"स्वभाव विप्रकर्षी परमाणु आदि, काल विप्रकर्षी राम, रावण आदि और देश विप्रकी हिमवान् आदि सूक्ष्म, अन्तरित एव दूरार्थ माने गये हैं।" प्रा. मी ५ ( कारिकाकार स्वामी समन्तभद्र ) पृ० ३५, ३४ अनु० मूलचन्दजी न्यायतीर्थ अत: हिमवान् पर्वत आदि “दूर" कहलाते है । (दूर अर्थात दूरवर्ती) परन्तु पचाध्यायी उ० श्लोक ४८४ मे लिखा है कि राम, रावण, चक्रवर्ती (बलभद्र, अर्द्धचक्री, चक्री ) जो हो गये हैं और जो होने वाले हैं वे दूरार्थ (दूरवर्ती) कहलाते हैं ( यथा-दूरार्था भाविनोतीता रामरावणचक्रिण ) यही बात लाटीसहिता ४-८ पर लिखी है। फर्क इतना है कि पचाध्यायी व लाटीसहिता मे काल की अपेक्षा दूर से "दूर" लिया है। परन्तु ऊपर प्रस्तुत ग्रन्थ मे एव प्राप्तमीमासा मे देश ( क्षेत्र ) की अपेक्षा दूर को "दूर" कहा है। अन्य कोई बात नहीं है। अर्थात विवक्षित कर्मद्रव्य का परप्रकृतिरूप सक्रमण होकर क्षय होना। निकटतम अन्य कषाय की प्रथम सग्रह कृष्टि मे विवक्षित कषाय के द्रव्यका सक्रमण करना परस्थान सक्रमण कहलाता है। ज. ध २१८३-८४ जो द्रव्य जिस कषाय मे सक्रमण करता है वह उसी कषायरूप परिणमन कर जाता है। जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत क्रम से की जाती है उसे पश्चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे—मैं मोक्ष सुख की इच्छा से वर्षमान स्वामीको तथा शेष तीर्थंकरो को भी नमस्कार करता हू'-यह प्ररुपणा ।
परमुख क्षय परस्थान सक्रमण
२३३ १२०-१३६
पश्चादानुपूर्वी
२३६
१ अर्थात् पहले वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता है। और विलोमक्रम से वर्धमान के बाद पार्श्वनाथ को, पार्श्वनाथ के बाद नेमिनाथ को; इत्यादि क्रम से शेष जिनेन्द्रो को भी नमस्कार करता हूँ। (घ. १६७४, मूलाचार १०५) यह पश्चादानुपूर्वी है।