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लब्धिसार
[गाथा ६
अथानन्तर देशनालब्धिका स्वरूप कहते हैंछंदवणवपयत्थोवदेसयर रिपहुदिलाहो जो । देसिदपत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी हूँ ॥६॥
अर्थ-छहद्रव्य और नवपदार्थका उपदेश देनेवाले आचार्यश्रादिका लाभ अथवा उपदेशित पदार्थोको धारण करनेका लाभ, यह तृतीयलब्धि है ।
विशेषार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छहद्रव्योके और जीव, अजीव, आस्रव, वध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थोके उपदेशका नाम 'देशना" है । उस देशनासे परिणत प्राचार्यादिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थक ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्तिके समागमको देशनालब्धि कहते है।
___गाथाके अन्तमे 'दु' शब्द आया है उसके द्वारा वेदनानुभव, जातिस्मरण, जिनविम्वदर्शन, देवऋद्धि दर्शनादि कारणोका ग्रहण होता है, क्योकि इन कारणोसे नैसर्गिक प्रथमोपणमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है। जो प्रथमोपशमसम्यक्त्व धर्मोपदेशके विना जिनविम्वदर्शनादि कारणोसे उत्पन्न होता है वह नैसर्गिकसम्यग्दर्शन है, क्योकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना नैसर्गिक प्रथमसम्यग्दर्शनका उत्पन्न होना असम्भव है । जिनविम्बदर्शनसे निधत्ति और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्बदर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमे कारण होता है । जिनपूजा, वदना और नमस्कारसे भी बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होती है । सामान्यरूपसे भवस्मरण (जातिस्मरण) के द्वारा सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु धर्मबुद्धिसे पूर्वभवमे किये गये मिथ्यानुष्ठानोकी विफलताका दर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्वके लिए कारण होता है।
१ व पु.६ पृ २०४। २ "वाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्” [सर्वार्थसिद्धि १।३ व राजवार्तिक १।३।५] ३ जाइस्म जिविवदसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असभावादो ( घ. पु.
पृ ४३१) ४ ध पु ६ पृ ४२७ । ५. ध पु. १० पृ २८६ । ६ घ पु ६ प ४२२ ।