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गाथा १२] क्षपणासारचूलिका
[ २३७ अर्थ-जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें भी अबन्धक होता है, किन्तु इतरकृष्टियोंके वेदन व क्षपणाकाल में उनका बन्धक होता है।
विशेषार्थ-दो समयकम दो प्रावलिपूर्व नवकबन्धकृष्टियों का संक्रमण करके क्षय करनेवाला उस अवस्था में उन कृष्टियोंका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्पराय नामक १०वें गुणस्थानमें सूक्ष्मकृष्टियोंका वेदन करते हुए भी उनका अबन्धक होता है, क्योंकि वहांपर बन्धशक्तिका अभाव है। बादरसाम्परायगुणस्थानमें क्षय होनेवाली कृष्टियोंके वेदककालमे कृष्टियोंका बाधक होता है। अर्थात् जिस जिस कृष्टिका क्षय करता नियमसे उसका बन्धक होता है, किन्तु दो समयकम दो आवलिबद्ध कृष्टि योके क्षपणाकालमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके क्षपणाकालमें उनका बन्ध नहीं करता। इन ग्यारह गाथाओं द्वारा सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त चारित्रमोहकी क्षपणाविधि चूलिकारूपसे कही गई । कुछ गाथा पूर्वमै कही जा चुकी हैं, किन्तु पुनरुक्त दोष नही आता' ।
'जाव ण छदुमत्थादो तिरह घादीण वेदगो होइ ।
अहऽणंतरेण खइया सव्वण्हु सव्वद रिसी य ॥१२॥
अर्थ-जबतक क्षीणकषायवीतरागसंयतछद्मस्थ अवस्थासे नहीं निकलता तबतक वह तीनघातियाकर्मोंका वेदक होता है। इसके पश्चात् अनन्तर समयमें तीनघातियाकोका क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है ।
विशेषार्थ-जबतक छद्मस्थ पर्यायको निष्क्रान्त नही करता तबतक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोंका नियमसे वेदन करता है, अन्यथा छद्मस्थभाव उत्पन्न नही होंगे । अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा समस्त घातिया कर्मरूपी गहन बनको दग्ध करके छद्मस्थ पर्यायसे निष्क्रान्त होकर क्षायिकलब्धिको प्राप्त कर [क्षायिकज्ञान दर्शन-सम्यक्त्व-चारित्र दान-लाभ-भोग उपभोग और वीर्य इन 8 क्षायिक भावोको प्राप्तकर] सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हुए विहार करते हैं। २ गाथाओके समाप्त होनेपर चारित्रमोहक्षपणा चूलिका सम्पूर्ण होती है।
पष्ठ २२३५।
२२७४।
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