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१५८ २८
१६०
१६
१६२ १०
१६३ ४
१६३ १७
१६३ १९
१६५ २६
१६८ २३
१६८ २३.
१६८ २४
१६६ १५
१७० १३
१७० १४
१७० १८
१७१
३
१७२
१७२
१७३
२३
२४
३
१७६ ४
१७७
१७८ १
शुद्ध
१७९ १७
१८० १०
प्रतिग्राह्य के अल्पबहुत्व के अनुसार अर्थात् प्रतिग्राह्य
का श्रल्पबहुत्व
करने वाले के क्रोध की
होता है, अतः यहाँ पर
ही होता है तथा वादरकृष्टिवेदन ने
श्रायाम भी इतना है ।
श्रधिक, क्योकि
श्रवरहिया
प्रसख्यात गुणहीन
गुणसे दि
होदि विसेसाहिय अट्ठ वस्सट्ठि
तत्प्रायोग्य संख्यात गुग्गा
उदीर्णमान
संख्यातवें भाग को
उदीर्णमान
स्थितिकाण्डको को
देयमान
११-१२ क्षीणकषाय गुणस्थान के ऊपर और
पडदे
ऊपर जो
दिया जाता है, यह द्रव्य
अनन्तर स्थिति मे देता है ।
(5)
तत्स्मृतम्
जिस काल मे अश्वकर्णकरण
शुद्ध
उससे लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कृष्टिरूप परिणत हुआ वह मरयात गुग्गा है । विशेषार्थ - सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक
प्रतिग्रह के माहात्म्य के अनुसार ही श्रर्थात् प्रतिगृह्यमाण
की प्रवृत्ति
करने वाले के जो प्रदेपा को को
होता है, किन्तु लोभ को प्रथम नग्रह कृष्टि के द्रव्य का लोभ की द्वितीय तृतीय सह कृष्टि में सक्रमण होता है अतः यहा पर
ही होता था, वह भी रुक गया तथा वादरकृष्टिवेदन के
श्रायाम भी सामान्य से इतना है ।
अधिक है, क्योकि
श्रवहरिया
विशेष ( चय) होन
गुढीस
होदि, विसेसाहियं
श्रट्ठवस्सट्ठिदि
तत्प्रायोग्य सस्यात
उदीयमान
असख्यातवें भाग को
उदीर्ण
स्थितिकाण्डको के यथाक्रम बीत जाने पर चरम स्थितिकाण्डक को
ऊपर पहले ( पुरातन ) जो
दिया जाता है, यहा प्रथम निषेक मे दिया गया द्रव्य श्रनन्तर स्थिति मे [ तृतीय पर्व की प्रथम स्थिति मे ] देता है ।
दीयमान
X
पदिदे
तत्सस्मृतम्
जिस काल मे चार कषायो का अश्वकर्णकररा