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शब्द
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मन्तरित
१८६, १८९
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परिभाषा समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है । तथा संग्रह कृष्टि की ये अवान्तर कृष्टिया हो "अन्तर कृष्टि" कहलाती है । (अवयवकृष्टि अन्तरकृष्टि क० पा० ८०६) अतीत, अनागत काल सम्बन्धी अन्तरित कहलाता है । जैसे राम, रावण ग्रादि । प्राप्त मीमासा. वृ० ५ तथा न्याय दी० पृ० ४१ । परन्तु पंचाव्यायी मे ऐसे कहा है-अन्तरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपाः ॥२/४८४ अर्थात् द्वीप, समुद्र, पर्वत प्रादिक पदार्थ अन्तरित हैं। क्योकि इनके बीच में बहुत सी चीजें या गई हैं, इसलिये ये दिख नहीं सकते । दिवस से कुछ कम को अन्तदिवस (अन्तःदिवस) कहते हैं । अन्त. अर्थात् अन्दर । अत: जहा विवक्षित प्रमाण से कुछ कम हो वहा अन्तः संज्ञा होती है । इसी तरह कोडा कोडी से नीचे तथा कोड़ी से ऊपर को अन्तः कोटा कोटी कहते हैं । कहा भी है-"अन्तः कोडा कोडी सागर" ऐसा कहने पर एक कोडा कोड़ी सागरोपमको सख्यात कोटियो से खण्डित करने पर जो एक खण्ड होता है वह अन्तः कोड़ा कोडी सागर का अर्थ ग्रहण करना चाहिये । (ववल ६/ १७४ चरम पेरा) प्रश्वकर्णकरण, आदोलकरण, अपवर्तनोद्वर्तनकरण; ये तीनो एकार्थक नाम हैं । उनमे से अश्वकर्णकरण ऐसा कहने पर उसका अर्थ होता है अश्व का कर्ण अश्व कर्ण । अश्वकर्ण के समान जो करण वह प्रश्वकर्णकरण है। जिस प्रकार अश्व
पाया. फोटि गागर
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मनोनारण ६४
६% मूल कथन दिया जाता है ताकि अन्तर सुस्पष्ट हो जायगा(1) अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः अर्याः (1) अन्तरिता यया द्वीपसरिन्नाथनगाधिपाः प्रा० मी० वृ० ५ लाटीसहिता सर्ग ४ श्लोक ८
पूर्वि पृ० ५१ (1) अन्तरिता: कालविप्रकृष्टा रामादयः (1)अंतरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपा।
___ न्यायदीपिका पृ० ४१ पंचाव्यायी २/४८४ राजमल्ल ()प्रतीत अनागतकाल सम्बन्धी अतरित कहिये । (1)
५० टोडरमलजी नार-पहा टक ग्रन्यो में काल से अतरित नोट-ऊपर दोनो ग्रन्यो मे क्षेत्र से अंतरित
(यहित) प्रयवा विप्रकृप्ट (दूर) व्यवहित ( यानी विप्रकृष्ट ) को पाई यो "अन्तरित" कहा है। "अन्तरित" कहा है ।