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१
१५४ १४
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१८
१५७
१५
१५५ १५
१५.५
२२
१
प्रशुद्ध
असख्यातवे भाग का घात करता है इसलिए द्वितीय समय मे मतख्यात गुखीहीन कृष्टियो का नाश करता है । इसी प्रकार
प्राप्त होते है, जो कि प्रथम ग्रहकृष्टि वेदककाल के विभाग से कुछ अधिक है।
उस संग्रहकृष्टि को
चरमसमयवर्ती
करता है,
अतिस्थापना
सहिया
अवयव कृष्टियो के द्रव्य का
द्वितीय कृष्टि मे कृष्टियो का संख्यातगुणा
चौदह गुणा हो गया । १
प्रथमस्थिति शेष रह अन्तर कृष्टियों के नीचे
वेद करके
अपेक्षा असख्यात
विशेष कृष्टियो का
(0)
एक खण्ड द्रव्य जघन्य बादर
जाता तथा
दिया जाता है । इससे आगे
शुद्ध
अनुभाग को नष्ट करने मे कारणभूत यहा की विशुद्धियो की उसी प्रकार से प्रवृत्ति होने का नियम देखा जाता है । इसी प्रकार
अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराचिककृष्टिकारक
प्राप्त होते है। प्रथम सग्रह कृष्टि वेदककाल त्रिभाग से कुछ अधिक है।
।
उस संग्रहकृष्टि की
चरम समय मे
करता है । किन्तु प्रतिस्थापना
एक भाग प्रमाण द्रव्य दिया जाता है । एक भाग प्रमाण द्रव्य चढे गये अध्वान प्रमाण
विशेषो से होन करके दिया जाता है ।
एक खण्ड द्रव्य विशेषाधिक करके (चयाधिक करके)
जघन्य बादर
जाता है तथा
दिया जाता है। पूर्वनिर्वर्तित कृष्टि को प्रतिपद्यमान प्रदेशान का असख्यातवा भाग हीन दिया जाता है । इससे आगे
अर्थ - लोभ की तृतीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कृष्टि रूप परिणत हुआ वह स्तोक है । उससे लोभ की द्वितीय सह कृष्टि से जो द्रव्य लोभ को तृतीय संग्रह कृष्टिरूप परिणत हुआ वह सत्यातगुणा है।
महिया
श्रवयव कृष्टियो का धीर द्रव्य का
द्वितीय कृ ष्ट मे संख्यातगुणा कृष्टियो का
x
X
चौदह गुणा हो गया । १ इन अन्तरकृष्टियो के प्रदेशान का भी अल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए । प्रथम शुद्ध स्थिति में समयाधिक धावती काल शेष रह कृष्टि अन्तरो मे
वेदन करके
अपेक्षा संख्यातअन्तर कृष्टियों का