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२३२] क्षपणासारचूलिका
[ गाथा २-३ फरता है । इसीप्रकार (अन्तरकरणके पश्चात्) गाथानुसार क्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा), पुरुषवेदका क्षय करता है । अवेदी होकर संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्वलनमायाका क्रमसे क्षय करके सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संज्वलन लोभका क्षय करता है ।
इसप्रकार प्रथमगाथामें चार अनन्तानुबन्धीकषाय और दर्शनमोहकी तीनप्रकृतियोके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्ति बताकर चारित्रमोहकी नव नोकषाय व चारसंज्वलन कषायोके क्षयका क्रम बतलाकर अब दूसरी गाथामें क्षय होनेवाली सोलह प्रकृतियोके नाम कहते हैं
'अह थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य ।
अह णिरय तिरियणामा खीणा संछोहणादीस ॥२॥
अर्थ-स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति-तिर्यञ्चगति और सहचरी नामकर्मको प्रकृतियोका अन्य प्रकृतियोमें संक्रमण करके नाश करता है ।
विशेषार्थ-अन्तरकरण करतेसे पूर्व क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुआ मनुष्य प्रथम आठ मध्यवर्ती कषाय (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) का क्षय करता है उसके पश्चात् दर्शनावरणकर्मकी तीन प्रकृतियां (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला) तथा नामकर्मकी १३ प्रकृतियां-वरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म व साधारण इसप्रकार (३+१३) इन सोलह प्रकृतियोंमें संक्रमण करके इनका क्षय करता है।
अन्तरकरण करनेके पश्चात् मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रमण होता है उसीको तीन गाथाओमे कहते हैं
सव्वस्त मोहणीयस्स आणुपुवी य संकमो होइ ।
लोहकसाए णियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥३॥ २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२-७३ । १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७३, क० पा० सुत्त गा० १२८ पृष्ठ ७५६ ।