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क्षपणासार
[ गाथा २६० विशेषार्थ-पंच लघुअक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने कालप्रमाणवाले अयोगके वली नामक १४वें गुणस्थानको अध:स्थितिगलनके द्वारा व्यतीतकरके समस्तकों के पूर्णरूपसे क्षय होजाने के कारण निरंजन है । अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन पराकाष्ठाको प्राप्त हो जानेसे बुद्ध हैं, अविकल आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो जानेसे नित्य, अविनाशी अर्थात् आत्मस्वरूपसे चलायमान होनेवाले नही हैं । समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जानेसे सिद्ध हैं, तीनलोकके शिखरपर विराजमान हो जानेसे तीनलोक् से पूजित हैं अथवा उनका ध्यान करने से भव्यजीवोंको मोक्षकी सिद्धि हो जाती है इसलिए भी वे सिद्धभगवान् पूजित हैं। चरमशरीरसे किंचित् न्यून आकारवाले मूर्तिक (कर्म-नोकर्मसे रहित होने के कारण) सिद्ध भगवान् मुझे क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा समाधि (वीतरागता) देवे।
जैसे दीपकका बुझना प्रदीपका निर्वाण है उसीप्रकार आत्माकी स्कन्धसन्तान का उच्छेद होनेसे अभावमात्र निर्वाणकी कल्पना बौद्ध करता है। अभावलक्षणवाले निर्वाणका विरोध करनेके लिए सर्वपुरुषार्थकी सिद्धिसे सिद्ध तथा ज्ञान व दर्शनको पराकाष्ठाको प्राप्त हो गये ऐसा कहा गया है । ज्ञानीजन स्वनाशके लिए पुरुषार्थ नहीं करते, विन्तु अपूर्वलाभके लिए पुरुषार्थ करते हैं। नैयायिक कहता है कि वुद्धि, सुख, दु.ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार, इन नव आत्मगुणोके नाशसे निर्वाणकी कल्पना करते हैं, किन्तु यह कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि गुणोंके अभावसे गुणो आत्माका भी अभाव हो जावेगा। अतः उपर्युक्त पुरुषार्थसिद्धि व परमकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान-दर्शन विशेषण दिए गए हैं। इसीप्रकार गधेके सीगके समान मुक्तावस्था में मात्माका अभाव माननेवालोका तथा कार्य-कारणसम्बन्धसे रहित बहुत सोते हुए पुरुष के समान आत्माके अव्यक्त चैतन्य मानने वालोका विरोध हो जाता है। अत: हमारे सिद्धान्तमे स्वात्मोपलब्धि ही निर्वाण (सिद्धि) है, यह सिद्ध हो जाता है।
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१. उपवन मूल पृष्ट १९६३-६४।