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गाथा २६०
क्षपणासार
[ २२९
झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होति मणसहिए।
तं णत्थि केवलि दुगे तम्हा झाणं रण सभवदि' ॥"
ध्यान, ध्याता, ध्येय और विकल्प ये सब मनसहित जीवोके होते हैं, परन्तु वह मन सयोग व अयोगकेवलीके नहीं है अतः इनके ध्यान सम्भव नही है । जिसप्रकार सयोगके वलीके ध्यान नहीं है उसीप्रकार अयोगकेवलोके ध्यान नहीं है, इनके भूतपूर्वनयको अपेक्षा औपचारिकध्यान माना जाता है । तथापि उक्त--
"यद्यत्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्युपचारक्रियया ध्यानमित्युपचर्यते । पूर्ववृत्तिमपेक्ष्य घृतघटवत् । यथा घटः पूर्व घतेन भृतः पश्चात् रिक्तः कृतः घृतघट आनीयतामित्युच्यते तथा पूर्व मानसव्यापारत्वात् ॥"
यद्यपि यहां मनका व्यापार नही है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्याद कहा गया है। जैसे घटमें पहले घो भरा हुआ था पश्चात् वह रिक्त हो गया फिर भो वह घीका घट कहलाता है। पहले मनका व्यापार था, केवली होनेपर मनका व्यापार नहो रहा तथापि भूतपूर्व नयसे ध्यानका उपचार किया जाता है । और भी कहा है--
"निरवशेष निरस्तज्ञानावरणे युगपत् सकलपदार्थावभासि केवलज्ञातातिशये चिन्ता निरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिहरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् ।"
समस्तज्ञानावरणके नाश हो जानेपर युगपत् समस्तपदार्थों के रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानका अतिशय होनेपर चिन्तानिरोधका अभाव होनेपर भी कर्मों के नाशरूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है।
सो मे तिहुणमहिदो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो । दिसदु वरणाणदंसणचरित्तसुद्धि समाहिं च॥२६०॥६५१॥
अर्थ-तीनलोकसे पूजित, बुद्ध, निरंजन, नित्य ऐसे सिद्धभगवान मुझे उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन व चारित्रकी शुद्धि तथा समाधि देवे ।
१. भावसंग्रह गा० ६८२-८३ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८७ को टोका पृष्ठ ३८५। ३. सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र ११ ।