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गाथा २५६ ]
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जिसप्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहपात्र में स्थित जलका क्रमश: अभाव होता है उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है । उक्त च -
क्षपणासार
"जह सव्वसरीरगदं मंतरण विसं णिरुभए डंके । तत्तो पुणोऽवरिगज्जदि पहाणज्भरमंत जोएन || तह बादरतणुविषयं जोगविस ज्झाणमंतबलजुत्तो | अणुभावहरु भदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो' ।”
जिसप्रकार मंत्र के द्वारा सर्वशरीर में व्याप्त विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मंत्र के बलसे उसे पुनः निकालते हैं उसीप्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादरशरीर विषयक योगविषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल देता है ।
चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन इसप्रकार है
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जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक्प्रकार से उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है । समुच्छिन्नक्रिय होकर जो प्रतिपाति है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपातिध्यान है | यह श्रुतज्ञानसे रहित होनेके कारण अवितर्क है, जीवप्रदेशो के परिस्पन्दका अभाव होनेसे अवीचार है या अर्थ- व्यञ्जन- योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है ।
"अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । ज्भाणं णिरुद्धजोगं अपच्छिमं उत्तमं सुक्कं ॥"
अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्करहित, वीचाररहित है, अनिवृत्ति है, क्रियारहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है ।
योगका निरोध होनेपर शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्मुहूर्त होती है, तदनन्तरसमय में शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याता है |
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७५-७६ ।
२. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७७ ।