________________
२१०]
[ गाथा २५६
पुव्वगृहरुस
गृहस्त तिजोगो संतो खीणो य पढमसुक्कं तु । विदियं सुक्कं खीणो इगिजोगो झायदे झाणी || २५६ ॥ ६५० ॥
अर्थ - पूर्व अर्थात् ग्यारह अङ्ग व १४ पूर्वके ज्ञाताके तथा तीनोंयोगवालो के उपान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानमे प्रथमशुक्लध्यान होता है एवं क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती और एकयोगवाले द्वितीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं ।
विशेषार्थ -- इस गाथामे प्रथमशुक्लध्यानके स्वामी उपशान्त मोहनामक ११वे गुणम्यानवाले तथा क्षीणमोहनामक १२वे गुणस्थानवालोको बताया है । अर्थात् ११ वें गुणस्थान से पूर्व के गुणस्थानोमे शुक्लध्यान नही होता, किन्तु धर्मध्यान होता है ऐसा इस गावाके पूर्वार्धका अभिप्राय जानना चाहिए । धर्मध्यान सकषायी जीवोंके और शुक्लध्यान कपायरहित जीवोके होता है । कहा भी है
" धम्मज्झाणमेयवत्थुम्हि थोव कालाबट्टाइ । कुदो ? सकषाय परिणामस्स भहरंत द्विदपईवस्सेव चिरकालमवट्टाणाभावादो | धम्मज्भाणं सकसाएसु चेव होदि ति कथं व्यदे ? अतंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद- पमत्तसंजद- श्रपमत्तसंजद अपुव्वसंजदप्रणिपट्टिन जब सुहुमसापराइयखवगोवसाएसु धम्मज्भास्स पवृत्ती होदित्ति जिणोवएसादो | सुक्कज्माणस्स पुण एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्भाणावद्वाणकालादो संखेज्जगुणपालमपट्टण होदि, वीयपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेण संचाला - नावादी' ।" अर्थात् धर्मध्यान एकवस्तुमे स्तोककालतक रहता है, क्योकि कषायसहित परिणाम गर्भग्रहके भीतर स्थित दीपक के समान चिरकालतक अवस्थान नही बन नरना | मयतमम्यग्दृष्टि, संयतासयत प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तस्यत, क्षपक व उपशामक नयन अतिवृत्तिकरणसयत-सूक्ष्मसाम्परायसयतो के धर्मध्यानकी प्रवृत्ति होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवका उपदेश है । इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान सकषाय जीवोके क्यानका एकपदार्थमे स्थित रहनेका काल धर्मध्यानके अवस्थानकाल है, क्योकि वीतरागपरिणाम मणिको शिखाके समान बहुतकालके द्वारा श्रीमान नहीं होते ।
होगा है,
܀
क्षपणासार
ܕ
पर २०१३ ७४-७५ |