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गाथा २५८ ] क्षपणासार
[ २१७ अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र ये ७२ प्रकृतियां हैं तथा उदयरूप वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, मनुष्यानुपूर्वी,' त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशस्कोति, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र ये १३ प्रकृतियां हैं । इसप्रकार इन ७२ व १३ प्रकृतियोंका क्रमशः द्विचरमसमय व चरमसमयमें क्षयकरनेके अनतरसमयमे जिसप्रकार कालिमारहित शुद्धसोना निष्पन्न होता है उसीप्रकार सर्व कर्ममलरहित कृतकृत्यताको प्राप्त यह आत्मा सिद्ध हो जाता है ।
तिहवणसिहरेण मही वित्थारे अट्ठजोयणुदयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ॥२५८॥६४६॥
अर्थ-तीनलोकके शिखरमें ४५ लाखयोजन विस्तृत एवं ८ योजन ऊंची, स्थिर, श्वेतवर्णवाली, छत्राकार ईषत्प्राग्भारनामक मनोहरपृथ्वी है ।
विशेषार्थ-सिद्ध होनेपर ऊर्ध्वगमनस्वभावसे यह जीव तीनलोकके शिखर में ईषत्प्राग्भारनामक अष्टमपृथ्वीपर एकसमयमात्रमें पहुँचकर तनुवातवलयके अन्तमें विराजमान होता है। वह सिद्धभूमि मनुष्यपृथ्वीके समान ४५ लाखयोजन विस्तृत गोलकारवाली आठयोजनऊंची, स्थिर, श्वेतछत्रके आकारकी मध्यमें मोटी व सिरोंपर पतली तथा मनोहर है । यद्यपि ईषत्प्रागभारनामक पृथ्वी धनोदधि-वातवलयपर्यन्त हैं, किन्तु यहां उस पृथ्वीके मध्य पाई जानेवाली सिद्धशिलाकी अपेक्षा यह प्ररुपण किया गया है। धर्मास्तिकायके अभावसे उससे आगे गमव नही होता है। अतः वहीं चरमशरीरसे किंचित्ऊन आकाररूप जीवद्रव्य अनन्तज्ञानानन्दमय विराजते हैं।
१. १४ वे गूणस्थानमे 'मनुष्यगत्यानुपूर्वी' अनुदयप्रकृति है। (धवल पु० ६ पृष्ठ ४१७, धवल पु०
१० पृष्ठ ३२६, भगवति आराधना गाथा २११७-१८) २. तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परम भास्वरा। प्राग्भारानाम वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता
नलोकतुल्यविषकम्भा सितच्छत्रनिभाशुभा । उध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ।।
१८४-८५ (ज. प. मूल पृष्ठ २२६६) ३. ततोऽप्यर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मति।। धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परा॥
(जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ श्लोक १८८)