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गाथा २५५-५६ ]
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रह जाती है । इसप्रकार सयोगकेवलीगुणस्थानका पालन करके उसके कालकी परिसमाप्ति हो जाती है तथा उससे अनन्तरसमय में अयोगीजिन हो जाता है।
क्षपणासार
तुरियं तु समुच्छिणं किरियं झायदि अजोगिजिणो ॥ २५५ ॥ ६४६ ॥ 'सीलेसिं संपत्ती विरुद्धणिस्सेसप्रासवो जीवो।
धरय विमुक्का गयजोगो केवली होदि ॥ २५६॥६४७।।
अर्थ--अयोगीजिन समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्या हैं तथा शैलेश्यभावको प्राप्त करके निःशेष (सम्पूर्ण ) आस्रवका निरोधकर बन्धरूपी रजसे मुक्त होकर योगरहित केवली हो जाते हैं ।
विशेषार्थ -- समुच्छिन्न अर्थात् उच्छेद हुआ है मन वचन कायरूप क्रियाका जहां तथा निवृत्ति (प्रतिपात ) से रहित अथवा मोक्षसे रहित होनेसे जो अनिवृत्त है ऐसा यह ध्यान सार्थक नामवाला है । यहां भी ध्यानका उपचाररूप कथन पूर्वोक्तप्रकार ही जानना, क्योकि यथार्थतया तो एकाग्रचित्तानिरोध ही ध्यानका लक्षण है जो कि केवली भगवान्के सम्भव नही है । समस्त आस्रवसे रहित केवली भगवान के अवशेषकर्मनिर्जरा कारणभूत स्वात्मामें प्रवृत्तिरूप ध्यान ही पाया जाता है । इसप्रकार सयोग - गुणस्थानके अनन्तर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालतक अयोगकेवली होकर शैलेश्य भगवान् arलेश्याभावको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् योगनिरोध हो जावेसे योगजनित लेश्याका भो अभाव हो जाता है |
शंका- शैलेश्य किसे कहते है ?
समाधान -- शीलका ईश (स्वामी) शीलेश है, उस शीलेशका भाव शैलेश्य कहलाता है । समस्त गुणशीलके अधिपतित्वको प्राप्त कर लिया है यह इसका अर्थ है ।
शङ्का - यदि ऐसा है तो इस विशेषणका यहां आरम्भ नहीं होना चाहिए । भगवत् अर्हत्परमेष्ठी के सयोगकेवली अवस्था में समस्त गुण-शीलका आधिपत्य अविकल -
१. धवल पु० १ पृष्ठ १६ε, पंचसग्रह १-३०, जीवकाण्ड गाथा ६५, विशेषकथन के लिए अष्टसहस्त्री पृष्ठ २३६-३७ एव प्रमेयकमलमार्तण्ड भी देखना चाहिए ।
२. कम्मरय इति पाठान्तरं ।
३. जयधवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ ।