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क्षपणासार
गाथा २५३-२५४ ]
[ २१३ उस चिंताका एकाग्नभावसे यहां निरोध होता है इसकारण भी ध्यानसंज्ञा सम्भव है । छद्मस्थोंके अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त एकवस्तुमें चिताके निरोध अर्थात् अवस्थानको ध्यान कहते हैं तथा केवलीभगवानके योगनिरोधका नाम ध्यान है। इसप्रकार ध्यान करनेवाले परमऋषिके परमशुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणि निर्जरा करनेवाले तथा स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात करनेवालेके पूर्वोक्तप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणे क्रमसहित कृष्टियोंको नष्ट करते हुए योगशक्तिको क्रमशः हीयमान करता है एव सयोगकेवलीगुणस्थान के चरमसमयमें सर्वकृष्टियोंके असंख्यातबहुभागप्रमाण मध्यवर्ती जितनी कृष्टियां अवशेष बची उनको नष्ट करता है, क्योकि इसके पश्चात् अयोगी होना है। इससम्बन्धमें उपयोगी श्लोक
"तृतीयं काययोगस्य सर्वज्ञस्यादुद्भुतस्थितेः ।
योगक्रियानिरोधार्थ शुक्लध्यानं प्रकोर्तितम् ॥"
अद्भुत स्थितिवाले काययोगी सर्वज्ञके योगक्रिया निरोधके लिये तृतीयशुक्लध्यान कहा गया है।
"अंतोमुत्तमद्ध चिंतावत्थाणमेयवत्थुम्मि ।
छदुभत्थाणं झाणं जोगणिरोधो जिणाणतु ॥" अर्थात अन्तमुहर्तकालतक एकवस्तुमें चिताका अवस्थान छनस्थोंका ध्यान है और योगनिरोध जिनेन्द्र भगवान्का ध्यान है। - केवलीभगवान् कर्मको ग्रहण करनेको सामर्थ्यवाले योगको पूर्णरूपसे निरोध करनेके लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्तिनामक तृतीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं। प्रतिसमय योगशक्ति क्रमसे घटतो जाती है और सयोगकेवली गुणस्थानके चरमसमयमें निर्मूलतः नष्ट हो जाती है।
जोगिस्त सेसकालं मोत्तूण अजोगिसव्वकालं य । चरिमं खंडं गेण्हदि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥२५३॥६४४॥ तत्थ गुणसेडिकरणं दिज्जादिकमो य सम्मखवणं वा । अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥२५४॥६४५॥