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[ गाथा २५६
तत्त्वानुशासन में धर्मध्यानका जो लक्षण कहा गया है उससे भी सिद्ध है कि गृहस्थ धर्मध्यान नही होता, क्योकि गृहस्थके चारित्र नही होता । तद्यथा-
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क्षपणासार
" सहप्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदु । तस्माद्यदनपेतं हि घम्यं तदुध्यानमभ्यधुः ।। "
धर्मके ईश्वर गणधरादि देवोने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है जो उस रत्नत्रयरूप धर्मसे उत्पन्न हो उसे ही आचार्यगण धर्मध्यान कहते हैं । गृहस्य के रत्वत्रयरूप धर्म नही होता अतः उसके धर्मध्यान भी नहीं होता ।
शङ्का -- आचार्योंने चतुर्थगुणस्थानसे धर्मध्यान कहा है तब फिर उपर्युक्त वचनका आचार्यवाक्योसे विरोध क्यो नही होगा ?
समाधान- -चतुर्थादि गुणस्थानोंमे धर्मध्यानका निरुपण आगम में पाया जाता है, किन्तु वहां मौपचारिक धर्मध्यान होता है, क्योकि वहाँ प्रमाद विद्यमान है । तत्त्वातुशासन व भावसंग्रह में कहा भी है-
"मुख्योपचारभेदेन अप्रमत्तेषु
धर्मध्यानमिहद्विधा । तन्मुख्यमितरेष्वीपचारिक ।।"
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"मुक्खं धम्मभाणं उत्त तु पमायविरहिए ठाणे | देसविरए पमत्त उवयारेणेव णायव्वं ॥"
मुख्य और उपचारके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है, उसमेंसे अप्रमत्तगुणस्थानमें मुख्य गौर चतुर्थ पंचम व छठे गुणस्थान में औपचारिकधर्मध्यान होता है । गृहस्थों के दानपूजादिको उपचारसे धर्मध्यान कहा गया है, क्योकि गृहस्थधर्म में दानपूपादिकी मुत्यता है । कहा भी है-
"तेपां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्व प्रतिपालनशील व्रतरक्षणादिकं गृहस्थधर्मएवोपदिष्ट भवतीति भावार्थ: । ये गृहस्थापि सन्तो मनागात्मभावनासासाद्य वयं ध्यानिन एति ते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्यः ॥ "
१. तयानुगासन ग्लोक ५१ ।
२. स्वानुशासन लोक ४७ ।
३. भगाया ३७१ । ४. गावा २ को टीका ।