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क्षपणासार
[गाया २५६
यतः उपशान्त मोहजीव अनेक द्रव्योका तीनों योगके आलम्बनसे ध्यान करते अनिए उसे पृथक्त्व कहा है। यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगतअर्थ में गुगल साधु ही इसध्यानको ध्याते हैं इसलिए इसध्यानको सवितर्क कहा है । अर्थ-व्यंजन और योगोका संक्रम वीचार है, ऐसे सक्रमसे जो ध्यानयुक्त होता है वह सवीचार कहा जाता है।
चौदह, दस और नौ पूर्वका धारी प्रशस्त तीनसंहननवाला और तीन योगोमें किसी एकयोगमे विद्यमान ऐसा उपशान्तकषायवीतरागजीव बहुत नयरूपी वनमें लीन हए ऐसे एकद्रव्य या पर्यायको श्रुतरूपी रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इसप्रकार उगो पदार्थको अन्तर्मुहर्तकालतक ध्याता है, इसके पश्चात् अर्थान्तरपर नियमसे सममित होता है अथवा उसी अर्थ के गुण या पर्यायपर संक्रमित होता है और पूर्वयोगसे म पवित् योगान्तरपर संक्रमित होता है । इसप्रकार एकअर्थ, अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर और पर्याय, पर्यायान्तरको नीचे-ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगोंको एकपंक्तिमें स्थापित करके द्विसंयोग और त्रिसयोगको अपेक्षा यहां पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यावके ४२ माश उत्सन्न करना चाहिए ।
जीव, पुद्गल, धर्मम. व. का. द्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश,
काल ये छह द्रव्य हैं; इनके सहभावीगुण बोर क्रमभावी पर्याय हैं । प्रत्येकद्रव्यकी अपेक्षा अन्य द्रव्य द्रव्यान्तर है, प्रवर गुणकी अपेक्षा अन्य सभी गुण गुणान्तर हैं और प्रत्येकपर्यायकी अपेक्षा अन्यपर्याय पर्यावान्तर है । द्रव्य, द्रव्यान्तर, गुण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर छहोके योगत्रयपनामपले १८ भंग होते हैं। भावतत्त्वके गुण-गुणान्तर तथा पर्याय-पर्यायान्तर इन पानेमे योगमय नक्रमणको अपेक्षा १२ भग और द्रव्य तत्त्वके गुण-गुणान्तर व पर्याय पर्यादातर इन चारोमे योगत्रय सक्रमणको अपेक्षा १२ भग होते हैं, ये मिलकर कुलभाग १८-१२-१२-४२ होते हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालतक शुक्ललेश्यावाला उपमाललायजीव छह द्रव्य और नौ पदार्थविषयक पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको अन्त
तर ध्याता है । अयंसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नही १. ० १३ ११७८ गाथा ५८-५९-६०॥