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क्षपणासार
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[गाथा २५४
से काले जोगिजिणो ताहे उगसमा हि कम्माणि ।
अर्थ-सयोगकेवलीगुणस्थानके शेषकाल तथा अयोगकेवलीके सर्वकाल इन दोनों कालोंको छोड़कर शेष सर्वस्थितिको गुणश्रेणिशीर्षसहित उपरितनस्थितिका घात करने के लिए अघातियाकर्मोके चरमस्थितिकाण्डकमें ग्रहण करता है। वहां गुणश्रेणिका करना और देयद्रव्यादिका क्रम सम्यक्त्वप्रकृतिकी क्षपणाविधिके समान है। सयोगकेवली गुणस्थानके चरमसमयमें अन्तिमफालिका पतन होता है तथा वही पर सयोगीजिनके (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोको स्थिति आयुकर्मके समान हो जाती है।
विशेषार्थ-सयोगीजिनका शेषकाल और अयोगीजिनके सर्वकाल, इन कालोको छोडकरगुणश्रेणीशीर्षसहित ऊपरितन सर्वस्थितियोंको नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मके चरमस्थितिकाण्डकमे घात करनेके लिए ग्रहण करता है । उससमय प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके उदयस्थिति में स्तोक देता है तथा अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशाग्न देता है । स्थितिकाण्डकघातकी जघन्यस्थितिके नीचे अनन्तरस्थितिपर्यन्त असख्यातगुणे क्रमसे प्रदेशाग्न देता है अर्थात् १४३ गुणस्थानके अन्ततक असंख्यातगुणे क्रमसे देता है, यही वर्तमान गुणश्रेणिका शीर्ष है । इस गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तरस्थिति में भी जो गुणश्रेणिशीर्षकी जघन्यस्थिति है उसमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिसे लेकर पुरातनगुणश्रेणिशीर्षतक विशेषहीन' क्रमसे प्रदेशाग्न देता है । यहासे गलितावशेष गुणश्रेणि प्रारम्भ हो जाती है। इस अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरमफालितक यहक्रम रहता है, किन्तु चरमफालिके द्रव्यमेसे उदयस्थितिमें स्तोक' प्रदेशान देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र देता है। इसप्रकार असंख्यातगुणा क्रम अयोगकेवलीके चरमसमयपर्यन्त जानना चाहिए। चरमफालिके पतनसमय में योगनिरोधक्रिया तथा सयोगकेवली कालकी परिसमाप्ति हो जाती है, इससे आगे (१४वे. गुणस्थानमे) गुणोरिण, स्थितिघात और अनुभागघात नही है, मात्र असख्यात गुरणश्रेणीरूपसे अधःस्थितिगलन होता है अर्थात् प्रतिसमय अधस्तन एकस्थितिकालका नाश होनेसे स्थितिका क्षय होता है । यहीपर सातावेदनीयकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति हो जातो एव (३६) प्रकृतियोकी उदीरणाव्युच्छित्ति भी हो जाती है तथा उसीसमयमे नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मकी घातकरनेसे शेष बची स्थिति आयकर्मके समान हो जाती है अर्थात् अयोगकेवलीकालके बराबर इन अघातिया (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोकी स्थिति शष