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क्षपणासारा
१,१४]
(गाथा १२३ जानना । यदि इसप्रकार नहीं होगा तो पहले स्तोक शक्तिवाली कृष्टियोंका अनुभव होकर पश्चात् अधिक शक्तिवाली कृष्टियोका अनुभव होगा सो होता नही, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते हुए अनुभागका अनुभव होता है । इसलिए संग्रहकृष्टियोंमे कृष्टिकारकसे कृष्टिवेदकका उलटा क्रम जानना, किन्तु अन्तरकृष्टियोमे पूर्वोक्त कम ही है ।
'किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य पढमसंगहादो दु । कोहस्स य पढमठिदी पत्तो उव्वटगो मोहे ॥१२३॥५१४॥
अर्थ--कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिसे क्रोधकी प्रथमस्थिति प्राप्त करता है तथा मोहनीयकर्मका अपवर्तनघात करता है । ki. विशेषार्थ-कृष्टिकरणकालके चरमसमयपर्यन्त तो जहां कृष्टियोके दृश्यमान प्रदेशोंका समूह चयरूप घटते हुए क्रमसहित गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थानमें रहता है और स्पर्धकोंके प्रदेशोंका समूह एक गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थानमे रहता है वहीं कृष्टियोके द्रव्यसे स्पर्धकोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है अत: कृष्टि और स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार नहीं है, किन्तु कृष्टिकरणकालकी समाप्तिके अनन्तर सभी द्रव्य कृष्टिरूप परिणमनकर एक. गोपुच्छाकाररूप रहता है, तब सज्वलनके सर्वद्रव्यको आठका भाग देकर उसमें से एक-एक भागप्रमाण द्रव्य लोभ, माया और मानका तथा पांच भागप्रमाण द्रव्य क्रोधका जानवा । यदि १२ संग्रहकृष्टियोमें विभाग किया जावे तो सज्वलनके सर्वद्रव्यको २४का भाग देनेसे वहां अन्य संग्रहकृष्टियोका एक-एक भागप्रमाण और क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका १३ भागप्रमाण द्रव्य है । यहा साधिकपना न्यूनपना है सो यथासम्भव पूर्वोक्तप्रकार (गाथा १०५के अनुसार) जानना । पहले कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयमै जैसा विधान कहा वैसा ही यहां भी जानना। प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके प्रमाणमैं उसके असख्यातवेंभागप्रमाण द्वितीयादि समयोंमें की गई कृष्टियोका प्रमाण जोड़नेपर सर्व पूर्व अपूर्वकृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भागदेकर लब्ध से एकभाग ग्रहणकर. उसको पल्यके असंख्यातवेभागका भाग देकर उसमेसे एकभागको
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६ । घ०,पु० ६ पृष्ठ ३८३ । जयघवल मूल पृष्ठ २०६७ ।