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क्षपणासार
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[गाया १५८ विशेषार्थ- शड्डा-जैसे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाला चारों कषायोको प्रयमकृप्टियोंका बन्ध करता है उसी प्रकार क्रोधको द्वितीयकृष्टिका वेदन करनेवाला क्या चारों ही कपायोंकी द्वितीयकृष्टियोंका बन्ध करता है ?
___समाधान--जिसकषायकी जिसकृष्टिका वेदन करता है अर्थात् प्रथम द्वितीय या तृतीयकृप्टिका वेदन करता है तो उस कषायकी उसी कृष्टिको वांधता है । वेद्यमान कपायके अतिरिक्त अन्य अबस्तनवर्ती कपायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका-बन्ध करता है, क्योंकि अन्यप्रकार असम्भव है। क्रोवकी द्वितीयकृष्टिका वेदन करनेवाला क्रोधकी द्वितीयकृष्टिका वन्य करता है, किन्तु मान-माया व लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टिका बन्ध करता है। इसीप्रकार उपरितनकृष्टियोंका वेदनकरने वालोंके भी लगा लेना चाहिए।
'माणतिय कोहतदिये मायालोहस्स तिय तिये सहिया । संस्त्रगुणं वेदिज्जे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥१५८॥५४६।।
अर्थ-यहां संग्रहकृष्टियों में अवयवकृप्टियोंके द्रव्यका अल्पवहुत्व कहते हैंमानकी तीन, कोवकी एक तृतीयकृष्टि तथा माया व लोभकी तीन-तीन, इन संग्रहकृप्टियोमें तो विशेष अधिक और वेचमान क्रोधकी द्वितीयकृष्टिमें कृष्टियोंका और प्रदेशोंका संख्यातगुणाप्रमाण क्रमसे है ।
विशेषार्थ-क्रोवकी हितीयसंग्रहकृष्टिके वेदन करनेवाले जीवके ग्यारहसंग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है-कृष्टिवेदकके मानकी प्रथमसंग्रहकृप्टिकी अवयवकप्टियां व प्रदेशाग्न अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्त-भाग होते हुए भी सबसे अल्प है, क्योकि स्तोकद्रव्यसे विर्वर्तित हुई है । मानकपायकी द्वितीयसंग्रहकृप्टिमें अंतरकृप्टिया विशेषअधिक हैं । पत्यके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर नो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योकि स्वस्थानमें यह प्रतिभाग है । तृतीयसंग्रहकृष्टि भी उतनी ही अधिक है। मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियां विशेष अधिक है । आवलिके असंख्यातवेंभागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योकि पर
१. २० पा० नुत्त पृष्ट ८५७ सूत्र ११५७ । जयघवत मूल पृष्ठ २१८४ । २. उप ३० मूल पृष्ठ २१८४ । ३. २० पा० मुत्त पृट ८५७ मूत्र १९६३ से ११७४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६०-६१ ।