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क्षपणासार
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[ गाथा २३६ बहभागप्रमाण घात होता है। इसप्रकार चारसमयोंमें अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अपवर्तन तथा स्थितिखंडका एकसमयवाला घात हुआ। एक-एकसमयमें जो एक-एकस्थितिकाण्डकघात किया सो यह समुद्घात क्रियाका माहात्म्य है । लोकपूरणके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिकाण्डक या अनुभागकाण्डकका आयाम (उत्कीरणकाल) होता है। लोकपूरण समुद्घातमें योगकी समानता हो जानेपर योगकी एकवर्गणा हो जाती है । यहां आयुसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितिको स्थापित करता है । लोकपूरणके अनन्तर प्रथमसमयमें लोकपूरणको समेटकर आत्मप्रदेशोंको कपाटरूप करता है तथा तृतीयसमयमें कपाटको समेटकर दण्डरूप आत्मप्रदेशोंको करता है, इसके अनन्तर चतुर्थसमय में दण्डको समेटकर सर्वआत्मप्रदेश मूल शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहांसे 'अन्तर्मुहूर्त जाकर जिन (अर्हन्तभगवान) योगका निरोध करते हैं।
विशेषार्थ- केवलज्ञानको उत्पन्नकरके स्वस्थान सयोगकेवलो होकर उत्कृष्टसे कछकम पूर्वकोटिप्रमाण विहार करते हैं । अन्तर्मुहर्तप्रमाण आयु शेष रहनेपर अघातियाकर्मोकी स्थितिको समान करने के लिए सर्वप्रथम आवजितनामक क्रियान्तरको करता है।
शङ्का--आवजितकरण किसे कहते हैं ?
समाधान-केवलीसमुद्घातके अभिमुखभावको आवजितकरण कहते हैं । केवली आवजितकरणका पालन करते हैं, क्योकि अन्तमुहर्तप्रमाणवाले आवजितकरणके बिना केवलीसमुदुधातक्रियाके अभिमुखभावकी उत्पत्ति नहीं होती। उससमय नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मके प्रदेशपिण्डका अपकर्षणकरके उदयस्थिति में स्तोकप्रदेशाग्न देता है उसके अनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशानको देता है । इसप्रकार शेष सयोगकेवली व अयोगकेवलीकालसे विशेषअधिककालतक असख्यात गुणी श्रेणिरूपसे देता जाता है जबतक अपना गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त नहीं होता। इससे पूर्वसमयमें स्वस्थानसयोगकेवलीके गुणश्रेणिआयामसे वर्तमानगुणश्रेणियायाम संख्यातगुणाहीन है अतः पूर्वके गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तरस्थितिमे भी असख्यातगुणे प्रदेशाग्न देता है उससे ऊपर सर्वत्र विशेष (चय) हीन देता है । इसप्रकार आवजितकरणकालमें सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना । यहासे लेकर सयोगकेवलीके द्विचरम स्थितिकाण्डककी चरमफालिपर्यन्त गुणश्रेणिनिक्षेपायामका अवस्थितआयामरूपसे प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है; यह प्रसिद्ध भी नही क्योकि सूत्रअविरुद्ध परमगुरुसम्पदाके बलसे सुपरिनिश्चित है ।