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गाथा २३६ ]
निरोध करते हैं । सूक्ष्म निगोदनिवृत्तिपर्याप्त अर्थात् श्रानपानपर्याप्तिसे पर्याप्त के सर्वजघन्यउच्छ्वास- नि.श्वासशक्तिसे असंख्यातगुणी संज्ञी पंचेन्द्रियकी उच्छ्वास- निःश्वासरूप परिस्पन्दशक्तिका बादरउच्छ्वास निःश्वासरूपसे ग्रहण करना चाहिए। उस बादरउच्छ्वासनिःश्वासका निरोधकरके सूक्ष्मनिगोदियाकी सर्वजघन्य उच्छ्वासशक्तिसे नीचे असंख्यात - गुणीहीन सूक्ष्मशक्तिरूप कर देता है, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से बादरकाययोगके द्वारा बादरकाययोगका निरोधकर सूक्ष्मरूप कर देते हैं, सूक्ष्मनिगोदिया के जघन्यकाययोग से असख्यातगुणहीन शक्ति से परिणमा देते हैं । इस सम्बन्धमें दो उपयोगीश्लोक है
क्षपणासार
"पंचेन्द्रियोऽथ संज्ञी य: पर्याप्तो जघन्ययोगी स्यात् । निरुणद्धि मनोयोगं ततोऽप्य संख्यातगुणहीनं ॥ द्वन्द्रिय साधारणयोर्वा गुच्छ्वासावघो जयति तद्वत् । कायजोगं जघन्यपर्याप्तकस्याषः ॥ "
पनकस्य
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संज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जघन्ययोगका विरोध होकर, उससे भी असंख्यातगुणाहीन मनोयोग हो जाता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके जघन्यवचनयोगका निरोध होकर उससे भी असख्यातगुणाहीन वचनयोग हो जाता है । साधारण अर्थात् निगोदिया के जो जघन्यउच्छ्वास है तथा सूक्ष्म वनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जो जघन्य उच्छूवास है तथा सूक्ष्मवनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदियाके जो जघन्यकाययोग है उन बादर-बादर वचन, उच्छ्वास व काययोगका निरोध होकर उनसे भी असंख्यातगुणाहोत वचनयोग, उच्छ्वास व काययोग हो जाता है । इसप्रकार यथाक्रम बादरमनोयोग, बादरवचनयोग, बादरउश्वास- निःश्वास व बादरकाययोगशक्तिका निरोध होकर सूक्ष्मपरिस्पन्दशक्ति हो जाती है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्ममनोयोगका निरोध करते हैं अर्थात् विनाश करते हैं । यहांपर सूक्ष्ममनोयोग से, सज्ञीपंचेंद्रियपर्याप्त के सर्वजघन्य परिणाम से असख्यातगुणेहीन अवक्तव्यस्वरूप द्रव्यमनोयोगके निमित्त से जो जीवप्रदेशो में परिस्पन्द होता है, उसका ग्रहण होता है । उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्मवचनयोगका निरोध अर्थात् विनाश होता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके सर्वजघन्यवचनयोगशक्ति से नीचे असख्यातगुणेहीन वचनयोगको सूक्ष्मवचनयोग कहते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासका निरोध ( नाश) करता है। यहां भी सूक्ष्मनिगोदियापर्याप्तजीवके सर्व जघन्य उच्छ्वाससे नीचे