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क्षपणासार
[गाथा २४०-२५१ जीवप्रदेशोंका गुणकार अविभागप्रतिच्छेदोके गुणकारसे असंख्यातगुणा है जो श्रेणिके असंख्यातवेभागप्रमाण है । अर्थात् अपूर्वस्पर्षकको आदिवर्गणासम्बन्धी जीवप्रदेशोंका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदोका परस्परगुणा करनेसे जो प्रमाण आता है वह चरमकुष्टिसम्बन्धी जीवप्रदेशोका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदोके परस्पर गुणनफलसे असंख्यातगुणाहोन है, क्योकि चरमकृष्टि से असख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश आदिवर्गणामें दिये जाते हैं। श्रेणिके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टिया है तथा अपूर्वस्पर्धक भी श्रेणिके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं, किन्तु पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी एकगुणहानिस्थानान्तर में स्पर्धकशलाकाके असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं । एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओं के असख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियां हैं जो अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं । इसप्रकार एक अन्तर्मुहूर्त कृष्टिकरणकाल है'।
एत्थापुव्वविहाणं अपुवफड्डयविहि व संजलणे । बादरकिट्टिविहिं वा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥२४॥६३६॥
अर्थ-योगोके अपूर्वस्पर्धक करनेका विधान जैसे पहले संज्वलनकषायके अपूर्वस्पर्धक करनेका विधान कहा है उसोप्रकार जानना तथा योगोंको सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान भी पहले कहे हुए सज्वलनकषायकी बादरकृष्टि करने के विधान सदृश ही जानना ।
किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफड्ढये सव्वे । णासेदि मुहुत्तं तु किट्टीगदवेदगो जोगी ॥२४६॥६४०॥ पढमे असंखभागं हेटठवरिं णासिदण विदियादी। हेढुवरिमसंखगुणं कमेण किट्टि विणादि ॥२५०॥६४१॥ मझिम बहुभागुदया किहि वक्खिय विसेसहीणकमा। पडिसमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया होंति ॥२५१॥६४२॥
अर्थ-कृष्टिकरणकालके चरमसमयके अनन्तर काल में सवं पूर्व अपूर्वस्पर्धकरूप प्रदेशोंको नष्ट करता है तथा अन्तमहर्तकालमें कृष्टिको प्राप्त योगका अनुभव १. जयघवल मूल पृष्ठ २२८७ से २२८६ ।