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क्षपणासार
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[ गाया २४४-४७ उससमयमें रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओंमें एवं उससे ऊपर पूर्वसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओं जीवप्रदेश दिये जाते हैं । सर्व अपर्वस्पर्धकों. का प्रमाण जगच्छणीके प्रथमवर्गमूलका असख्यातवांभाग है । पूर्वस्पर्धकोके असख्यातवें भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, क्योकि पूर्वस्पर्धकोंमें पल्यके असंख्यातवेभागप्रमाण गुणहानियां हैं, उनमेसे एकगुणहानि स्थानान्तरमें जितने स्पर्धक हैं उनसे भी असख्यातगुणेहोन अपूर्वस्पर्धक हैं।
शंका-गाथासूत्रके बिना यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध गुरूपदेशके बलसे उसप्रकारकी सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है, क्योकि व्याख्यानसे विशेषअर्थकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है। इसप्रकार अन्तम हर्तप्रमाण अपूर्वस्पर्धक करने का जो काल है उसके चरमसमयमें अपूर्वस्पर्धकक्रिया समाप्त हो जाती है। अपूर्वस्पर्धकक्रिया समाप्त हो जानेपर भी सर्व पूर्वस्पर्धक उसीप्रकार स्थित हैं, क्योकि अभी तक उनके विनाशका अभाव है। यहां सर्वत्र सयोगकेवलीके चरमसमयतक स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणीनिर्जराकी प्ररुपणा पूर्वोक्त क्रमसे जानना चाहिए, क्योकि उनकी प्रवृत्तिमें प्रतिबन्धका अभाव है । इसप्रकार अपूर्वस्पर्धकक्रियासम्बन्धी कथन समाप्त हुआ' ।
एतो करेदि किहि मुहुत्तअंतोत्ति ते अपुवाणं । हेद्वादु फड्ढयाणं सेढिस्स असंखभागमिदं ॥२४४॥६३५॥ . अपुवादिवग्गणाणं जीवपदेसाविभागपिंडादो । होति असंखं भागं किट्टीपढमम्हि ताण दुगं ॥२४५॥६३६॥ प्रोक्कदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणिदकमे। ' तग्गुणहीणकमेण य करेदि किहितु पडिसमए ॥२४६॥६३७॥ सेढिपदस्स असंखं भागमपुव्वाण फड्ढयाणं व । सव्वाश्रो किडीओ पल्लस्स असंखभागणिदकमा॥२४७।।६३।।
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२८५ से २२८७ ।