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गाथा २३७-२३ ]
क्षपणासार
दण्डं प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थेतु ॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मथानमथ पुनः षष्ठे । सप्तम के च कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥
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प्रथम समय में दण्ड, अनन्तर अगले समय में कपाट, तृतीयसमय में मंथान और चतुर्थ समय में लोकव्यापी, पांचवें समयमे संकोचक्रिया, छठे समय में मथान, सातवें समयमें कपाट तथा उसका संकोच होकर आठवें समय में दण्ड हो जाता है । इसप्रकार समुदुघात प्ररूपणा समाप्त हुई' ।
लोकपूरणसमुदुघातसे उतरनेवाला अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति के संख्यातबहुभागको घात के लिए स्थितिकाण्डकघातको और अप्रशस्त प्रकृतियोके पूर्वघातित अवशेष अनुभागके अनन्तबहुभागको घातने के लिए अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ करता है । यहां स्थिति काण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि लोकपूरणसमुदुघातके अनन्तरसमय से प्रतिसमय एकसमयवाला स्थितिघात व अनुभागघात नही होता । इस प्रकारसे समुदुघातको संकोच करनेके कालमें और स्वस्थान काल में संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर योग विरोध करता है ।
बादरमण वचि उस्सास कायजोगं तु सुहुमजचउक्कं । भदि कमलो बादरहुमेण य कायजोगेण ॥ २३७॥६२८॥ विमाणि पुणे जहरणम वय कायजोगादो । कुरणदि असंखगुणं सुहुमणिपुराणवरदोवि उस्सासं ॥ २३८॥६२६॥ एक्कक्कस्स टिंभणकालो तोमुत्तमेतो हु । सुमं देहणिमाणमारणं हियमाणि करणाणि ॥ २३६ ॥ ६३० ॥
अर्थ – बादर काययोगद्वारा सनोयोग-वचनयोग उच्छ्वास- काययोग, इन चारों को क्रमसे नष्ट करता है तथा सूक्ष्मकाययोगरूप होकर उन चारोंसूक्ष्म योगोंको क्रमसे
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२७२ से २२६२ ।