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२०२] क्षपणासार
गाथा २३६ जाती है जो शेषप्रायुसे संख्यातगुणी है । लोकपूरणसमुद्घति हो जानेपर भी तीनअघातियाकर्मोंका स्थितिसत्कर्म आयुकर्मके समान नही हुआ, किन्तु संख्यातगुणा है, परन्तु महावाचक आर्यमंक्षु आचार्यने क्षपणके उपदेश में यह कहा है कि लोकपूरणसमुद्घात में नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेषआयुके बराबर हो जाता है । इस व्याख्यानसे चूणिसूत्र (यतिवृषभाचार्यकृत) विरुद्ध है, क्योकि चूणिसूत्र में मुक्तकण्ठसे कहा गया है कि शेषआयुसे संख्यातगुणी अघातियाकर्मों की स्थिति रह जाती है । इसप्रकार यहां दो उपदेश हैं। प्रवृत्तमान उपदेशकी प्रधानताका अवलम्बन लेकर यहां शेष आयुसे संख्यातगुणी तीन अघातियाकर्मोंकी स्थिति कही गई है। । समुद्घातके इन चारसमयों में प्रति समय अप्रशस्तकर्मोके अनुभागका अपवर्तनाघात होता है । इनचार समयोंमें एक-एकसमयमें एक-एकस्थितिघात होता है । आवजितकरणके अनन्तर केवलीसमुद्घात करके नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है।
शङ्का-लोकपूरणसमुद्घातक्रियाके पूर्ण होनेपर केवलो समुदुघातक्रियाका उपसंहार (सकोच) करके स्वस्थानको किसप्रकार प्राप्त होते हैं ?
समाधान-लोकपूरणसमुद्घातके अनन्तर पुनः मन्थक्रिया होती है, क्योंकि मन्थपरिणाम (पर्याय) के बिना सकोच नही हो सकता। लोकपूरणसमुद्घात संकुचित होचेपर समयोगपर्यायका नाश होकर आगमके अविरोधसे सर्व पूर्वयोग-स्पर्धक उघाटित हो जाते हैं। मन्थ (प्रतर) का संकोच होकर कपाटरूप प्रवृत्ति होती है. क्योकि कपाटरूप पर्यायके बिना मन्थका संकोच नहीं हो सकता । अनन्तरसमयमें दण्डसमुद्घातरूप परिणमन करनेपर कपाटका संकोच होता है तथा तदनन्तरसमयमें स्वस्थानकेवलोपर्याय के द्वारा दण्डसमुद्घातका संकोच करके होनाधिकतासे रहित मूलशरीरप्रमाण जोवप्रदेशोंका अवस्थान हो जाता है । इसप्रकारे संकोच करनेवालेके तीनसमयप्रमाण काल है, चौथेसमयमें स्वस्थानकेवली हो जाते हैं। किन्हीके व्याख्यानुसार संकोच करनेवालेका चारसमय काल है, क्योकि जिससमयमें दण्डसमुद्घातका संकोच होता है वह समय भी समुद्घातमें ही अन्तर्भूत कर लिया है। पूर्ववत् प्रतरसमुद्घातमें कामणकाययोग, कपाटसमुद्घातमें औदारिकमिश्रकाययोग और 'दण्डसमुद्घातमे औदारिककार्ययोग होता है । कहा भी है