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क्षपणासार
[ गाथा २०५ अन्तिमफालिका असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्य और चरमस्थितिमै शेष बहुभाग प्रदेशाग्र देता है इसीलिये गुणाकार पत्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूल प्रमाण हो जाता है। इस. प्रकार चरमस्थिनिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिघातादि क्रिया नही होती, मात्र अघ.स्थितिगलनाके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियां निर्जराको प्राप्त होती हैं।
एत्तो सुहमंतोत्ति य, दिज्जस्त य दिस्तमाणगस्त कमो । सम्म तचरिमखंडे, तक्कदिकज्जेवि उत्तं च ॥२०५॥५६६॥
अर्थ-इसप्रकार यहांसे लेकर सूक्ष्म साम्परायिकगुणस्थानके चरमसमयपर्यन्त देयद्रव्य और दृश्यमानद्रव्यका क्रम जानना । जैसे क्षायिकसम्यक्त्वविधान में सम्यक्त्वमोहनीयके चरमस्थितिकाण्डकमे अथवा उसको कृत्य कृत्यावस्था में (कृतकृत्यवेदक सम्यपावकी अवस्थामे) कहा था वैसे ही जानना ।
विशेषार्य-यहां मोहनीयकर्मको सर्वस्थितिमें सूक्ष्म साम्परायका जितना काल अवशिष्ट रहा उतनेप्रमाण स्थितिबिना अवशेष सर्वस्थितिका घात चरमकाण्डकद्वारा किया जाता है वहां इस काण्डककी स्थितिसम्बन्धी निषेकों के द्रव्य में जो द्रव्य अन्तिमकाण्डकोत्कीरणकालके प्रथमसमय में ग्रहण किया उसको प्रथमकाल कहते हैं। इसीको स्पष्ट करते हैं
प्रथमकालिके द्रव्यको अपकर्षणकरके उसको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमे वहुभागमात्र द्रव्यको यहां (प्रथमफालिके पतन समय) सम्बन्धो सूक्ष्मसाम्पराय कालके चरमस पयपर्यन्त तो गुणश्रेणिआयामरूप प्रथमपर्वमें देता है। वहां उसके (गुणणि पायामके) उदयरूप प्रथमनिषेकमे स्तोक उससे द्वितीयादि निषेकोंमे असख्यात. गुने कापसे द्रव्य दिया जाता है (यहां सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमयको गुणश्रेणीजोपं कहते हैं) तया अवशेप एक भागप्रमाण द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागका भागकार बहभागप्रमाण द्रव्य गुणरेणोशोर्षसे ऊपर जो गुणश्रेणिआयाम था उसके शीर्षपांन्त दिनोवपर्व में दिया जाता है, यह द्रव्य गुणश्रेणोशोर्ष मे दिये गए द्रव्यसे असंख्यातगुना काम है। उसके ऊपर द्वितीयादि निषेकोमे चयरूपसे होन क्रमयुक्त द्रव्य दिया
१ उपधानमून पृष्ठ २२१७-१८ । जयधवल पु० १३ पृष्ठ ७६ ।