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पाथा २१४ ] क्षपणासार
[१८१ काल है, क्योंकि इतने कालके बिना प्रथमस्थिति में किये जाने वाले कार्य पूर्ण नहीं हो सकते । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें अश्वकर्णकरण करता है उसोकाल में मायोदयीक्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षपक जिसकालमें कृष्टियां करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक मानका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है। क्रोधोदयीक्षपक जिसकालमें क्रोधकी तीनसंग्रहकष्टियोका क्षय करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक सज्वलनमाया व लोभका अश्वकर्णकरण और अपूर्वस्पर्धक करता है । सहकारीकारण कषायोदयमें भेद होनेपर नानाजीवोंके अनिवृत्तिकरणपरिणाम भिन्न भिन्न स्वरूपसे हो जाते है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें मानकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकाल में मायोदयवाला क्षपक सज्वलनमाया और लोभकी छह कष्टियोंकी रचना करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिसकालमें मायाको तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसी कालमें मायोदयवाला क्षपक मायाकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है इसमें कोई अन्तर नहीं है तथैव लोभके क्षपण में भी कोई अन्तर नहीं है । पुरुषवेदसहित लोभोदयसे क्षपकश्रेरिण चढ़नेवालेकी विभिन्नताका कथन करते हैं
जबतक अन्तर नहीं करता तबतक कोई भेद नहीं है । अन्तर करनेके पश्चात् लोभको प्रथमस्थिति होती है जिसका प्रमाण क्रोधकी प्रथमस्थितिमें क्रोध, मान व माया क्षपणाकाल, अश्वकर्णकाल और कृष्टिकरणकाल मिलानेसे उत्पन्न होता है। क्रोधोदयीक्षपक जिसकाल मे अश्वकर्णकरण करता है उसकालमें लोभोदयवाला क्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमयमें कृष्टियां करता है उससमय में लोभोदयोक्षपक मानका क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षपक जिससमय क्रोधका क्षय करता है उसीकालमें लोभोदयीक्षपक मायाका क्षय करता है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मानका क्षय करता है लोभोदयीक्षपक उससमय अश्वकर्णकरण करता है । यहांपर एकसंज्वलन लोभकषाय है। यद्यपि संज्वलनलोभकषायके अनुभागका अश्वकर्ण आकारसे विन्यास होना सम्भव नही है तथापि अनुभागका विशेषघात होकर अपूर्वस्पर्धक विधानकी अपेक्षा अश्वकर्णकरण कहने में कोई विरोध नहीं है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मायाका क्षय करता है उससमय लोभोदयी क्षपक लोभकषायके पूर्व व अपूर्वस्पर्धकोंकी अपवर्तना करके लोभकी तीनसग्रह कृष्टियोंको करता है, क्योंकि शेष कषायोंका क्षय हो चुका है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिस समय लोभका क्षय करता है उसी