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गाथा २२६ ] क्षपणासार
[ १६१ केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों प्रकाश एक हैं ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्यपदार्थको विषय करनेवाला साकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग है और अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाला अनाकारोपयोग अर्थात् दर्शनोपयोग है' । "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे ? अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो ।" अर्थात् अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है । यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरङ्ग पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता । इसप्रकार विषयभेद होनेसे दोनों उपयोगोंका कार्य भिन्न-भिन्न है अतः कोई भी उपयोग व्यर्थ नहीं है ।
यदि दर्शनका सदभाव न माना जावे तो दर्शनावरणकर्मके बिना सात ही कर्म होगे, क्योंकि आवरण करनेयोग्य दर्शनका अभाव माननेपर उसके आवरकका सदुभाव मानने में विरोध आता है । दर्शन है, क्योंकि सूत्रमें आठकर्मोका निर्देष किया गया है। यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि मुख्य वस्तुके अभावमें उपचारकी उत्पत्ति नहीं बनती।
वीर्यान्तरायकर्मका निर्मूल क्षय हो जानेसे अनन्तवीर्य की उत्पत्ति होती है जो परिश्रमसे उत्पन्न होनेवाली थकावटका विरोधी है तथा अप्रतिहतसामर्थ्यवाला है, अन्तरायरहित है वह अनन्तवीर्य कहा जाता है। भगवान् अशेष (समस्त) पदार्थोको विपय करनेवाले ध्र वउपयोगरूप परिणामवाले हैं अर्थात् भगवान् निरन्तर ध्र वरूपसे समस्त पदार्थों को जानते हैं तथापि उनको खेद नही होता यह अनन्तवीर्यका उपग्रह (उपकार) है और यही उसकी उपयोगिता है। उस अनन्तवीर्यके बलाघानबिना सान्ततिक उपयोगकी प्रवृत्ति नही हो सकती, अन्यथा हम जैसे छद्मस्थोंके उपयोगके समान उस उपयोग (केवलीके उपयोग) की सामर्थ्यका विरह (अभाव) होने से अनवस्थाका प्रसंग आ जावेगा । कहा भी है
१. जयधवल पु० १:पृष्ठ ३५८ । २. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३३७ । ३. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३५८-५९ । ४. धवल पु०७ पृष्ठ ६८ ।