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क्षपणासार
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गाथा २२२-२२४ ]
सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उवसमदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥२२२।।६:१३॥
अर्थ-सातप्रकृतियोके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व तथा चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे या उपशमसे उत्कृष्ट-यथाख्यातचारित्र होता है।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चारकषाय व तीन दर्शनमोह (मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व) इन ७ प्रकृतियोके क्षयसे तत्त्वोंका यथार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व होता है सो क्षायिक सम्यक्त्व है । चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोंके उपशम या क्षयसे उत्कृष्टचारित्र (यथाख्यातचारित्र) होता है जो निष्कषाय आत्माचरणरूप है। यद्यपि यहां क्षायिक यथाख्यातचारित्रका प्रकरण है तथापि उपशान्तकषायगुणस्थानमें भी यथाख्यातचारित्रका प्रसंग होनेसे उपशमयथाख्यातचारित्रको भी कह दिया है।
केवली भगवान्के असातावेदनीयकर्मके उदयसे क्षुधादि परीषह पाये जाते हैं अतः उनके भी पाहारादिकिया होती हैं इसप्रकारकी शंका होनेपर उसके परिहार स्वरूप गाथा कहते हैं।
जं णोकसायविग्घचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपय डिणुदयभवं इदियखेदं हवे दुक्खं ॥२२३॥६१४॥
अर्थ--नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे दुःखरूप असातावेदनीयादि अशुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके खेदरूप आकुलताका नाम दुःख है' और वह दु ख केवलीभगवानके नहीं पाया जाता है।
जं णोकसाय विग्धं च उक्काण बलेण साद पहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥२२४॥६१५॥
अर्थ-नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे सातावेदनीयादि शुभप्रकृतियोके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके सतुष्टिरूप कुछ निराकुलसुख भी' के वलीभगवानके नही पाया जाता है । क्योंकि-- १. "सपरं बाहासहिय विच्छिण्ण बंधकारणं विसमं । जं इंदियलद्धं तं सोक्खं दुःखमेव सदा ॥७॥"
(प्रवचनसार)