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क्षपरणासार
हाय रायदोसा इंदियाणं च केवलिम्हि जदो ।
ते दुसादासादजसुहदुक्खं गत्थि इंदियजं ||२२५॥६१६॥ अर्थ- केवली भगवानके राग-द्व ेष नष्ट हो गए हैं तथा इन्द्रियजनित ज्ञान भी नष्ट हुआ है इसलिए साता - असातावेदनीयके उदयसे उत्पन्न सुख-दुःख नहीं है' । समयट्टिदिगो बंधो सादस्सुदयपिगो जदो तस्स |
तेण प्रसादस्सुद सादसरुवेण परिणमदि ॥ २२६॥६१७॥
[ गाथा २२५-२६
अर्थ - एक समय प्रमाण स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बघता है जो कि उदयरूप ही है इसलिए उनके ( केवली भगवान् के) असाताका उदय भी सातारूप होकर परिमन करता है ।
विशेषार्थ – असातावेदनीयका वेदन करनेवाले जिनदेव आमय और तृष्णा से रहित कैसे हो सकते हैं, यह कहना भी ठीक नही है; क्योंकि असातावेदनीय वेदित होकर भी वेदित नही है, कारण कि अपने सहकारीका रणरूप घातियाकमौका अभाव हो जाने से उसमें दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध आता है ।
शङ्का - निर्बीज हुए प्रत्येकशरीर के समान निर्बीज हुए असातावेदनीयका उदय क्यों नही होता ?
समाधान- नही, क्योकि भिन्नजातीय कर्मोकी समान शक्ति होनेका कोई नियम नही है |
शङ्का - यदि असातावेदनीयकर्म निष्फल ही है तो वहां उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है ?
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समाधान- नहीं, क्योकि भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है । दूसरी बात यह है कि सहकारीकारणरूप घातिया कर्मोंका अभाव होनेसे ही शेषकर्मोंके समान असातावेदनीयकर्म न केवल निर्बीजभावको प्राप्त हुआ है, किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीय का बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभागयुक्त सातावेदनीयरूप सहकारीकारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है । यदि कहा जाय कि बन्धके उदयस्वरूप
३. जयघवल मूल पृष्ठ २७० ॥
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