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क्षपणासार
गाथा २१६-१७]
[१३ 'थीपढमहिदिमेत्ता संढस्सवि अंतरादु सेढेक्क । तस्सद्धाति तदुवरि संढा इत्थिं च खबदि थीचरिमे॥२१६॥६०७॥ अवगदवेदो संतो सत्त कसाये खवेदि कोहुदये । पुरिसुदये चडणविही सेसुदयाणं तु हेढुवरि ॥२१७॥६०८॥
अर्थ-नपुसकवेदोदयसे चढे क्षपकके प्रथमस्थितिका काल उतना ही है जितना स्त्रीवेदोदयसे श्रेणि चढ़े क्षपकके प्रथमस्थितका काल है। अंतरके पश्चात् नपुंसकवेदके क्षपणाकाल है उसके ऊपर स्त्रीवेदका क्षपणाकाल उसके कालमें नपुंसक और स्त्रीवेदकी क्षपणा करता हुआ प्रथमस्थितिके चरमसमयमें नपुंसकवेदसहित स्त्रीवेदका क्षय करता है तथा अपगतवेदी होकर सात नोकषायका क्षय करता है, इससे नीचे और ऊपरकी विधि पुरुषवेद व क्रोधोदयसे श्रेणी चढ़ क्षपकके समान है।
विशेषार्थ--स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपकको प्रथमस्थितिके समान नपुंसकवेदोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपककी प्रथमस्थिति है अर्थात इन दोनों प्रथमस्थितियोंका काल समान है । पुनः अन्तर करनेके द्वितीयसमयमें नपुंसकवेदका क्षय करना प्रारम्भ करता। पुरुषवेदोदयीक्षपकके जितना नपुसकवेदका क्षपणाकाल है, नपुसकवेदोदयीक्षपकके उतना काल व्यतीत हो जानेपर नपुसकवेद क्षीण नही होता, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थिति अब भी शेष है । पश्चात् अनन्तरसमयमें स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करके स्त्रीवेदका क्षय करता हुआ नपुसकवेदका भी क्षय करता है । पुरुषवेदोदयवाला क्षपक जिस कालमें स्त्रीवेदका क्षय करता है उसी समय नपुंसकवेदोदयीक्षपक स्त्री व नपुंसकवेदका युगपत् क्षय करता है। यह स्थूल कथन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे सवेदकालके द्विचरमसमयमें नपुसकवेदकी प्रथमस्थितिके दो समयमात्र शेष रहने पर स्त्रीवेद और नपुसकवेदके सत्तामें स्थित समस्त निषेकोंको पुरुषवेदमें संक्रमित हो जानेपर नपुंसकवेद की उदयस्थितिकी अन्तिम स्थितिका विनाश नही हुआ उसका विनाश अगले समय म होगा। (जयधवल पु० २ पृष्ठ २४६) अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषाय इन सात कर्मप्रकृतियोका एकसाथ क्षय करता है, इन सातोंका ही क्षपणाकाल समान है। शेष पदोंमें जैसी विधि पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी कही गई है वैसी
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1. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६३-८६४ सूत्र १५४६ से १५५२ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ४१० ।