________________
क्षपणासार
[ गाथा २१८ १८४ ही होनाधिकतासे विधि यहां भी कहना चाहिए। तीनों काल में नानाजीवोके अनिवृत्तिकरण परिणामोमें विलक्षणता सम्भव नही है तथापि वेद और कषायके उदयमे भेट होनेसे अनिवृत्तिकरण परिणामोमें नानाविशिष्ट कार्य होने में कोई विरोध नही है।
'चरिले पढमं विग्धं चउदंलण उदय सत्तवोच्छिण्णा । से काले जोगिजिणो सव्वण्हू सव्वदरसी य ॥२१८॥६०६।।
अर्थ-क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तसमय में प्रथम अर्थात् ज्ञानावरण, अन्तराय और चारदर्शनावरण, ये कर्मप्रकृतियां सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं और अनन्तरकालमें सयोगिजिन सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं ।
विशेषार्थ--क्षीणकषायनामक १२वें गुणस्थानके चरमसमयमें एकत्ववितर्कअवीचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानके द्वारा (मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय-केवल) पांच ज्ञानावरण, पांच (दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य) अन्तराय, (चक्ष-अचक्ष-अवधिकेवलरूप) चारदर्शनावरण इसप्रकार तीनघातिया कर्मोकी १४ प्रकृतियोंकी उदय व सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है अर्थात् इन प्रकृतियोका क्षय हो जाता है, क्योकि इनकी बन्धव्युच्छित्ति सूक्ष्मसाम्परायनामक १०वें गुणस्थानमे ही हो जाती है ।
शंका--क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमे घातियाकर्मोके साथ अघातिया. कर्मोका क्षय क्यो नहीं हो जाता, क्योकि कर्मत्वकी अपेक्षा घातिया व अघातियाकर्मोमें कोई अन्तर नहीं है ?.
समाधान-ऐसी शका नही करनी चाहिए, क्योकि विशेषघातभावकी अपेक्षा घातिया और अघातिया कर्मोमें अन्तर पाया जाता है। इसीलिए क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमें अघातियाकर्मोका स्थितिसत्कर्म रहता है, क्योकि इनकी स्थितिके विशेषघातका अभाव है । अघातियाकर्मों की स्थिति के विशेषघातका अभाव असिद्ध भी नही है, क्योकि अघातियाकर्म घातियाकर्मों के समान अप्रशस्त नहीं हैं। घातियाकर्मोंमे मोहनीयकर्म अधिक अप्रशस्त है इसलिए विशेषघातभावके कारण पूर्वमे अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमय में क्षय हो जाता है । यद्यपि कर्मत्वकी अपेक्षा घातिया व १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ । २. क. पा सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १५७१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४१२ । गो. जीवकाण्ड गाथा ६४ ।