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गाथा २१३-२१४ ]
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'उपशान्तकषायी अथवा क्षीणकषायी पूर्वोके ज्ञाता तीनों योगवालेके, शुक्ललेश्यायुक्त एवं उत्तमसंहननवाले के प्रथम शुक्लध्यान होता है । प्रथमशुक्लध्यानके समान ही द्वितीयशुक्लध्यान भी जानता, किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वितीयशुक्लध्यान एकयोगवाले के होता है । क्षीणकषायीके यह द्वितीयशुक्लध्यान ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायकर्मका विरोध करनेके लिये होता है ।
क्षपरणासार
कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहा दिएक्कदोतीहिं । खवद्धाहिं कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥ २१३ ॥ ६०४ ॥ मातियादयमहो कोहादि गिदुतियं खवियपणिधम्हि । हयक कि द्विकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ॥ २९४ ॥ ६०५ ॥
अर्थ — क्रोधकी प्रथमस्थितिसहित क्रोधादि एक-दो-तीन कषायों का क्षपणाकाल क्रमसे मानादि तीनकषायोंकी प्रथम स्थिति होती है । मानादि तीनकषायों सहित श्र ेणी चढनेवाला जीव क्रमसे क्रोधादि एक-दो-तीन कषायोंके क्षपणाकालके निकट अश्वकर्णसहित कृष्टिकरणको करके लोभको नष्ट करता है ।
विशेषार्थ—अन्तरकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त अबतक जो प्ररूपणा की गई है वह पुरुषवेदके उदयसहित संज्वलनक्रोधके उदयवाले क्षपककी प्ररूपणा है, किन्तु
१.. "शान्त क्षीणकषायस्य, पूर्वज्ञस्य त्रियोगिनः । शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य, मुख्यं संहननस्य तत् ॥१॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ||२|| (जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ )
२. " एयत्तवियक्क - अवीयार- ज्भारणस्स अप्प डिवाइविसेसणं किण्ण कदं ? रग, उवसंतकसायम्मि भवद्धा खएहि कसा सु रिणवदिदम्मि पडिवादुवलभादो ।" [ धवल पु० १३ पृष्ठ ८१] एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानके लिये 'अप्रतिपाती' विशेषण क्यो नही दिया ? समाधान नही, क्योकि उपशातकषाय जीवके भव तप और काल क्षयके निमित्त पुनः कषायोको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क - अविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है । घवल पु० १३ के इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवेंगुणस्थान मे भी एकत्ववितर्क- अवो चार नामक दूसरा शुक्लध्यान होता है |
३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६० से ८२ सूत्र १५०२ से १५३४; धवल पु० ६ ४ ४०७; जयधवल मूल पृष्ठ २२५५-५६ ।