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[ गाथा २१२
चरि खंडे पडदे कदकर णिज्जोति भरदे एसो । ate दुरिमे गिद्दा पयला सत्तुदद्यवोच्छिणा ॥ २१२॥६०३॥
क्षपणासार
अर्थ--अन्तिमकाण्डकके पतित होनेपर कृतकृत्य छद्मस्थ कहलाता है । क्षीणकषायके द्विचरमसमय में निद्रा और प्रचला सत्त्व- उदयसे व्युच्छिन्न हो जाते है ।
विशेषार्थ -- चरम स्थितिकाण्डक निवृत्त होनेके पश्चात् तीनघातिया कर्मोंकी गुणश्रेणिक्रिया नहीं होती, किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी | श्रेणिरूप से उदीरणा होती है अतः वह कृतकृत्य है' । क्षीणकषायके चरमसमय से अनंतर अधस्तनसमय द्विचरमसमय है, उस द्विचरमसमय में दर्शनावरणकर्मकी निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां एकसाथ उदय और सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं, क्योकि घातिया कर्मरूप ई धनको जलानेवाली द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा क्षीणकषायी के निद्रा व प्रचला प्रकृति की उदयव्युच्छित्ति सम्भव है ।
शङ्का - क्षीणकषायी जीवके ध्यानपरिणामसे विरुद्धस्वभाववाली निद्रा और प्रचलाका उदय कैसे सम्भव है ?
समाधान - ऐसी शंका नही करना चाहिये, क्योंकि ध्यानयुक्त अवस्था में भी निद्रा और प्रचलाके अवक्तव्य (अवक्तव्य - अप्रगट) उदयके विरोधका अभाव है ।
क्षीणकषायकालके आदिंसे लेकर कुछ कालतक तो पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक
- प्रथमशुक्लध्यानका पालन करते हुए जब अपने कालका संख्यातवां भाग शेष रह जाता है तब एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानको अर्थ व्यञ्जन व योगसक्राति से रहित ध्यानेवाला अवस्थित यथाख्यात विहारशुद्धिसयम परिणामवाला, अवस्थित गुणश्र ेणि निक्षेपके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुरगी निर्जरा करनेवाला क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव अपने द्विचरमसमय में निद्रा और प्रचला प्रकृतिके सत्त्व और उदयकी व्युच्छित्ति करता है । कहा भी है
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२६५ ।
२. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६ ।