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[ गाथा २१०
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जो गुणश्रेणिनिर्जरा होती थी, क्षीणकषायगुणस्थान में वह गुणश्रेणी निर्जरा पूर्वसे असंख्यातगुणी हो जाती है । सकषायपरिणामसे होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जराकी अपेक्षा अकषायपरिणामों से होनेवाली गुणश्र णिनिर्जरा असख्यातगुणी है । सम्यक्त्व प्रकृतिके चरमस्थितिकाण्डकघात तथा देयमान व दृश्यमानद्रव्य एव गुणश्रेणिनिर्जराका जैसा कथन ( गाया २०५ मे ) है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए' ।
क्षपणासार
घादी मुहुतं अघादियाखं असंखगा भागा ।
ठिदिखंडं रसखंडो प्रांतभागा असत्थाणं ॥ २१० ॥ ६०१ ॥
अर्थ - क्षीणकषायगुणस्थान मे तीनघातिया कर्मोंका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्रीर तीनप्रघातिया कर्मोका पूर्वसत्त्व असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकाण्डकायाम है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोके पूर्व अनुभागको अनन्तका भाग देनेपर उसमें से बहुभागप्रमाण अनुभाग काण्डकायाम है |
विशेषार्थ - क्षीणकषायगुणस्थान के प्रथम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकमका अन्तर्मुहूर्त आयामवाला स्थितिकाण्डकघात होता है, उन्ही कर्मोंके घातसे शेष रहे हुए अनुभाग के बहुभागका अनुभाग काण्डकघात होता है । नाम-गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोकी शेष स्थितिसत्त्वके असंख्यात बहुभागवाला स्थितिकाण्डकघात होता है और इन तीनो अघातिया कर्मोकी अप्रशस्त प्रकृतियो के अनुभागसत्त्वके अनन्तबहुभागका अनुभागकाण्डकघात करता है । छहो कर्मों के प्रदेशपिण्डको अपकर्षण करके गुण णिरूपसे विन्यास करनेवाला उदयस्थिति में स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिमे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र निक्षिप्त करता है । क्षीणकषायकालसे असंख्यातर्वेभाग आगे जाकर गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त होनेतक इसप्रकार असख्यातगुणश्रेणिरूपसे प्रदेशाग्र देता जाता है, पुन. गुरण रिगशीर्ष से अनन्तर उपरिम स्थितिमे भी असख्यातगुणा द्रव्य देता है, क्योंकि गुरण णिमे अपकषितद्रव्यका असख्यातवां भाग दिया जाता है और असख्यातबहुभाग गुरणश्र णिशीर्षसे ऊपरकी स्थितियोंमे दिया जाता है । इसको उपरिममध्वान से खण्डित करनेपर अर्थात् उपरिम अध्वानमें विभाजन करनेपर एकखण्डप्रमाण प्रदेशाग्र से गुणश्रेणीशीर्षकी अनन्तर उपरिमस्थिति रची जाती है ।
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२६४-६५ ।