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भाथा २०६]
ধত্বষাৰ
[ १७५ प्रमाण स्थिति रह जाती है तब जिसप्रकार गुणश्रेणीनिर्जरा, देयद्रव्य व दृश्यमानद्रव्य कथन है उसीप्रकार यहां भी जानना ।
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय होनेके अनन्तरवर्ती समयमें द्रव्य व भावकषायसमूहसे उपरम (रहित) हो जानेसे क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त होता है और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमी हो जाता है । प्रथमसमयमें निम्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्राप्त कर लेता है । क्षीणकषायगुणस्थानका लक्षण इसप्रकार कहा है
हिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदय समचित्तो।
खीणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयराएहिं ।।'
मोहकर्मके निःशेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मलभाजनमें रखे हुए सलीलके समान स्वच्छ हो गया है ऐसे निर्ग्रन्थसाधुको वीतरागियोंने क्षोणकषायसंयत कहा है।
उस क्षीणकषायावस्थामें सर्वकर्मोके स्थिति, अनुभाग व प्रदेशका अबन्धक हो जाता है । स्थिति व अनुभागबन्धका कारण कषाय है, क्योंकि कषायका स्थितिआदि बन्धके साथ अन्वय-व्यतिरेक है। संश्लेषरूप कषायपरिणामोंके अपगत (व्यतीत) हो जानेसे क्षोणकषायी जीवके स्थितिआदि बन्ध सम्भव नहीं है। प्रकृतिबन्धका कारण योग है जो क्षीणकषायी जीवके भी सम्भव है इसलिए प्रकृतिबन्धका निषेध नही किया गया । सातावेदनीयके अतिरिक्त अन्य प्रकृतियोंका बन्ध क्षीणकषायगुणस्थान में नहीं होता, क्योंकि सूखे भाजनपर धूलके समान बन्धके अनन्तरसमयमें गल जाती हैं अर्थात् अकर्मभावको प्राप्त हो जाती है। स्थिति और अनुभागबन्धको कारणभूत कषायकी सगतिका अभाव होनेसे दूसरे समयमें ढुक (निर्जीर्ण) हो जाता है, ईर्यापथ बन्धकी निर्जराका इसप्रकार उपदेश है। जहाँपर ईर्यापथ कर्मवर्गणाओंके लक्षणका विस्तार. पूर्वक कथन है वहांसे विस्तार जानना चाहिए । क्षोणकषायसे अधस्तनवर्ती गुणस्थानों
१. गोम्प्रटसार जीवकाण्ड गाथा ६२ । २. जयधवलाकारने क्षीणकषायवर्ती को प्रदेशका भी अबन्धक कहा है और योगसे मात्र प्रकृतिवन्ध
कहा है, किन्तु गो० क० गाथा २५७ मे योगको प्रकृति व प्रदेश दोनोके बन्धका कारण कहा है। ३. धवल पु० १३ पृष्ठ ४७ से ५४ तक ।