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क्षपणासार
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[ गाथा २०३-२०४ द्रव्यको अंतरायाममें देकर द्वितीयस्थितिके और इस अन्तरायामके एकगोपुच्छ किया जो प्रथमस्थितिकाण्डकायाममे अन्तरायाम बहुत होता तो वहां अन्तरायाम पूर्ण नही होता तव अन्तरस्थितिके और द्वितीयस्थिति के एक गोपुच्छ नहीं होता । अतः यहां अन्तरायाम से प्रथमस्थितिकाण्डकायाम बहुत कहा है, उससे अन्तरायाम और द्वितीयस्थितिके एकगोपुच्छ प्रयमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके पतनसमयमे ही होता है। जहां विशेष (चय) रूप घटता क्रम होता है वहा गोपुच्छ मज्ञा है ।
सुहुमाणं किट्टी हेटा अणुदिण्णगा हु थोवाओ। उवरिं तु विसेसहिया मज्झे उदया असत्रगुणा ॥२०३।।५६४॥
अर्थ- सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियोके अधस्तनभागमें अनुदीर्णकष्टियां स्तोक है, उपरिमभागमें अनुदीर्ण सूक्ष्मकृष्टिया विशेषअधिक हैं। मध्यमे उदोर्ण सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं।
विशेषार्थ-प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकक्षपकके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों के असंख्यातबहुभाग उदोर्ण होते हैं । ये उदीर्णमान सूक्ष्मकृष्टियां ऊपर और नीचेके संख्यातवेंभागको छोड़कर मध्यके बहुभागमें पायी जाती है। अघस्तन अनुदीर्णसूक्ष्मकृष्टिया स्तोक हैं, उपरिम अतुदीर्णसूक्ष्मकृष्टियां विशेषअधिक है, मध्यमें उदीर्णमान सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणो है। जिसप्रकार सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमें उदीर्ण और अनुदोर्णकृष्टियोका कथन किया है वैसा ही द्वितीयादि समयोंमें जानना, उसमे कोई विशेषता वही है, किन्तु द्वितीयसमयमे पूर्व उदीर्णमान कृष्टियोके असंख्यातवेभागको छोड़ देता है और अधस्तन अतुदोर्णकृष्टियां असंख्यातवेभाग बढ़ जाती है ।
सुहुमे संखसहस्से खंडे तीदे वसाणखंडेण । अागायदि गुणसेढी आगादो संखभागे च ॥२०४॥५६५॥
१. जयवल मूल पृष्ठ २२१४ । २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३३६ से १३४३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२१७ । ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३४४ । ध० पु०६ पृष्ठ ४०६ ।