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गाथा २०१-२०२ ]
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एकभाग लब्ध आवे उतना है और वह मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मप्रमाण निषेकों में अपकर्षणभागहारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवें - भागप्रमाण द्रव्यको ही नीचे गुणश्रेणिमें सिंचित करता है । शेष असंख्यात बहुभागको इससमयके गुणश्रेणीशीर्षसे उपरिम गोपुच्छाप्रो में आगममें प्ररूपित विधिके अनुसार सिंचित करता है । इसकारण से पहले के गुणश्रेणिशीर्ष से इससमयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नही हुआ, किन्तु दृश्यमानद्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिए | यहां पर अवस्थित गुणश्रेणिआयाम होने से प्रतिसमय ऊपर-ऊपरका विषेक गुणश्रेणिशीर्ण होता जाता है' ।
क्षपणासार
सुमद्धादो श्रहिया गुणसेढी अंतरं तु तत्तो दु ।
पढमे खंड पढमे संतो मोहस्स संखगुणिदकमा ॥ २०१ ।। ५६२ ।।
अर्थ-- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल से उसीके असंख्यातवें - भागसे अधिक सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका गुणश्रेणीश्रायाम है, उससे अन्तरायाम संख्यातगुणा, उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके मोहनीय कर्मका प्रथम स्थितिकाण्डकायाम सख्यातगुणा तथा उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुरणा है । सर्वत्र गुरणकार तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा है ।
"एदेणप्पा बहुग विधा
विदीयखंडयादी | गुणसे डिमुज्झियेया गोपुच्छा होदि सुहुमहि || २०२ ||५६३ ॥
अर्थ - इस अल्पबहुत्व विधानके द्वारा साम्पराय गुणस्थान में द्वितीय स्थितिकाण्डकोंके काल में गुरणश्रेणिको छोड़कर उसके ऊपरवर्ती सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है ।
विशेषार्थ - यहां अंतरायामसे प्रथम स्थितिकाण्डकायास संख्यातगुणा कहा है, उससे प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके द्रव्यमें अन्तरायाममें देनेयोग्य गोपुच्छरूप
१. जयघवल पु० १३ पृष्ठ ६८ ।
२. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३३० से १३३५ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४०५ ।
२. जय घ० मूल पृष्ठ २२१४-२२१५ ॥
४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२८ । ६० पु० ६ पृष्ठ ४०५ |