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गाथा १६८ }
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अर्थ- चरमस्थितिको काण्डकायामसे गुणाकरके उसमें विशेष ( चय) द्रव्य मिलानेसे चरमफालिका द्रव्य होता है उसको संख्यातवां भाग अन्तरस्थितियों में देता है और बहुभाग सर्व स्थितियों में देता है ।
क्षपणासार
विशेषार्थ - द्वितीयस्थितिकें प्रथमनिषेक में एककम द्वितीयस्थितिआयाम प्रमाण विशेष घटानेपर उसके चरमनिषेकका द्रव्य होता है, उससे लेकर नीचे के कांण्डकायामात्र निषेकका द्रव्य अन्तिमफालिमें ग्रहण करता है उससे उस अन्तिमनिषेकके द्रव्यको काण्डकाया से गुणा करनेपर वहां अधस्तन निषेकमें जो विशेषअधिक पाया जाता है उनको मिलानेपर अन्तिमफालिके सर्वद्रव्यका प्रमाण होता है इसमें अधस्तन निषेकों का अपकर्षण किये हुए द्रव्यको जोड़नेपर जो द्रव्य होता है उसको पत्यके असख्यातवें भागका भागदेकर एकभागको गुणश्रेणी प्रयास में देनेके पश्चात् अवशिष्ट द्रव्यके संख्यातवेंभागको अन्तरायामको स्थितियों में और शेष बहुभागको द्वितीयस्थितिकी स्थितियो में गोपुच्छाकाररूपसे एक-एक चयरूप हीन द्रव्य देता है |
अंतरपदमठिदित्तिय संखगुणिक्कमेण दिज्जदि हु । दीगं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुषादोत्ति ॥ १६८ ॥ ५८६ ॥
अर्थ- सूक्ष्म साम्परायगुणस्थान में मोहनीय कर्म सम्बन्धी द्वितीयस्थितिकाण्डकघात से लेकर द्विचरमकाण्डकघात पर्यन्त अन्तरायामकी प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है तथा उसके ऊपर एक-एक चर्यरूप हीनद्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ - - मोहकर्म के द्वितीयस्थितिकाण्डकघात से लेकर द्विचरमकाण्डकघात - पर्यन्त काण्डर्कसे गृहोत स्थिति से नीचे और उदयावलिसे ऊपर जो निषेक हैं उनके द्रव्यको अपकर्षणभागहारेका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य ग्रहणकरके पुनः उसको पल्यका असंख्यातवें भाग का भागदेकर एकभागको पूर्वोक्तप्रकार गुणश्रेणियायाम में प्रथम उदयनिषेकमे तो स्तोकद्रव्य तथा द्वितीयादि निषेकोसे गुणश्रेणिशीर्ष पर्यन्त असंख्यात - गुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । अवशिष्ट बहुभागमात्रद्रव्यको गुणश्रेणिसे ऊपरकी स्थितियों में दिया जाता है । गुणश्रेणिके ऊपरवर्ती निषेकोमे जो द्रव्य देता है वह गुणश्रेणी शीर्ष में दिये गए द्रव्य से असंख्यातगुणा है । इसप्रकार अन्तर के प्रथम निषेक पर्यन्त तो असंख्यातगुणे क्रमसे तथा उसके ऊपर एक- एक विशेष ( चय) रूप घटते क्रम से द्रव्य दिया जाता है । यह क्रम प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होनेतक पाया जाता है । सर्वस्थिति