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क्षपणासार
[गाथा १६६-१६५ दिया जाता है। चरमफालिके पतन होनेपर गुणश्रेणिके बिना सूक्ष्मसाम्परायिक स्थितियों का द्रव्य एकगोपुच्छाकार रूप हो जाता है। प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके पतन होनेके अनन्तरसमय में द्वितीयस्थितिकाण्डकका प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इसका आयाम प्रथम स्थितिकाण्डकायामसे स्तोक है। द्वितीयस्थितिकाण्डकसे अपड़ र्षण करके जो प्रदेशाग्न उदयस्थिति में दिया जाता है वह अल्प है इससे आगे असंख्यातगुणीश्रेणिके क्रमसे गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तर उपरिम एकस्थितितक द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे गोपुच्छविशेषसे हीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। यही क्रम सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके मोहनीयकर्मके स्थितिघात होनेतक रहता है।
'अंतरूपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणकमेण असंखेज्जेण गुणं तो विहीणकमं ॥१६६॥५८७॥
अर्थ-अन्तरकी प्रथमस्थितिपर्यन्त प्रदेशाग्न असख्यात गुणे क्रमसे दिखाई देते हैं, इससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्न दिखाई देते हैं, तदनन्तर असख्यातगुणे और तत्पश्चात् विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं।
विशेषार्थ-इस गाथामें प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायके दृश्यमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररुपणा बतलाई गई है। प्रथमसमयमें सूक्ष्मसाम्परायकी उदयस्थिति में अल्प प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, द्वितीयस्थितिमे असख्यात्तगुणे प्रदेशाग्न दिखाई देते हैं। इसप्रकार यह असंख्यातगुणाक्रम गुणश्रेणीशीर्षतक जानना तथा उससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देता है। तदनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देते हैं। यह क्रम तबतक रहेगा जबतक कि कि प्रथमस्थितिकाण्डकके समाप्त होने का चरमसमय प्राप्त नही होता ।
कंडरगुणचरिमठिदी सविलेला चरिमफालिया तस्स । संखेजभागमंतरठिदिम्हि सब्जे तु वहुभागं ॥१६७॥५८८॥
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२०६ से २२१३ तक । २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७०-७१ सूत्र १३१६ से १३२५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०४ । ३. अयघवल मूल पृष्ठ २२१३-२२१४ ।